*अर्श से फर्श पर बसपा: कभी प्रदेश में राज करने वाली पार्टी...अस्तित्व खोज रही* जनता से दूरी बनी पतन का कारण? ~~~~~~~~ उत्तर प्रदेश में शनिवार को उपचुनाव की मतगणना की जा रही है। इसमें बसपा अपना अस्तित्व खोती नजर आ रही है। कभी उपचुनाव न लड़ने वाली बसपा ने इस बार सभी नौ सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। लेकिन, वह कुछ खास नहीं कर सके। या यूं कहें कि बसपा को उबारने में सहायक साबित नहीं हो सके तो गलत नहीं होगा। 2019 लोकसभा चुनाव के बाद से बसपा लगातार नीचे की ओर बढ़ती दिख रही है। पहली बार बसपा ने उपचुनाव लड़ने का एलान किया। लेकिन, इसमें भी कुछ हासिल नहीं कर सकी। सभी नौ सीटों की बात करें तो किसी में तीसरे या फिर उससे निचले पायदान पर नजर आ रही है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। इनमें एक प्रमुख कारण बड़े नेताओं का चुनाव प्रचार से दूरी बनाना भी देखा जा रहा है। चुनाव प्रचार से दूरी बसपा के लिए आमजन से दूरी बन गई। उसके प्रत्याशी लोगों के दिल में जगह नहीं बना पाए। *लगातार नीचे की ओर खिसकती जा रही बसपा* पार्टी प्रमुख मायावती समेत लगभग सभी बड़े नेताओं ने एक भी सीट पर एक भी रैली नहीं की। ऐसे में जब सत्तासीन भाजपा और सपा के साथ मुकाबला कड़ा था। तब भी प्रत्याशियों के कंधों पर ही मैदान फतह करने की जिम्मेदारी रही। इसका खामियाजा भी बसपा को भुगतना पड़ा। इसका असर चुनाव परिणाम में साफ दिख रहा है। 2019 के बाद से बसपा लगातार नीचे की ओर खिसकती जा रही है। *आइए एक नजर डालते हैं 2019 के बाद बसपा के राजनीतिक सफर पर...* वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव हुए। इसमें बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया। इस चुनाव में बसपा को 10 सीटें हासिल हुईं। इसके बाद वर्ष 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन समाप्त कर लिया। इस चुनाव में इसका असर भी दिखा। बसपा को महज एक सीट पर जीत मिली। जो कि बसपा के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था। *बसपा को आमचुनाव में एक भी सीट नहीं मिली* इसके बाद वर्ष 2024 के आमचुनाव में भी बसपा ने अकेले लड़ने की घोषणा की। सभी 80 सीटों पर पार्टी ने अपने प्रत्याशी उतारे। मेहनत भी की गई। लेकिन, ना तो आलाकमान और ना ही पार्टी प्रत्याशी जनता के मन में जगह बना पाए। नतीजा आए तो बसपा के साथ ही उसके समर्थकों के लिए भी चौंकाने वाले थे। बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था। यानि बसपा को आमचुनाव में एक भी सीट नहीं मिली। *सभी नौ सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का एलान* आमचुनाव में मिली हार के बाद बसपा को यूपी में वापसी की उम्मीद थी। शायद इसीलिए कभी उपचुनाव ना लड़ने वाली बसपा ने इस बार उपचुनाव लड़ने का फैसला किया। बसपा सुप्रीमो मायावती ने सभी नौ सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का एलान किया। लेकिन, अब जब नतीजे आ रहे हैं तो बसपा को एक भी सीट मिलते नहीं दिख रही है। किसी भी सीट पर वह लड़ाई पर भी नहीं है। *आक्रामक प्रचार रहा गायब* राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो पार्टी के शीर्ष नेताओं की जनता से दूरी भी इस हार का कारण बनती जा रही है। उपचुनाव में सभी नौ सीटों पर प्रत्याशी उतारने के बाद पार्टी ने स्टार प्रचारकों की सूची जारी की। इसमें पार्टी प्रमुख मायावती, आकाश आनंद और सतीश चंद्र मिश्र सहित करीब 40 नेताओं को मैदान संभालने की जिम्मेदारी मिली। लेकिन, समय बीतता गया और यूपी में मायावती समेत लगभग किसी भी बड़े नेता की कोई जनसभा नहीं हुई है। *पारंपरिक वोट साथ में रखने में नाकाम* आमजन से दूरी का आलम यहां तक रहा कि बसपा अपने पारंपरिक वोट भी पूरी तरह से पक्ष में नहीं ला सकी। बसपा का कोर वोटर दलित माना जाता है। लेकिन, बसपा उसे भी बांधकर रखने में असफल साबित हो रही है। चुनाव नतीजों में इसका असर साफ दिख रहा है। *संविधान और जाति जनगणना का भी असर* पिछले कुछ समय से संविधान और जाति जनगणना को लेकर राजनीतिक बयानबाजी काफी तेज है। भाजपा और सपा इस पर अपने-अपने गुणा-गणित के हिसाब से बयानबाजी करती रही। लेकिन, बसपा ने खुलकर इस पर कुछ नहीं कहा। इसका भी असर बसपा के कोर वोटर समेत नए वोटरों पर दिख रहा है।
*अर्श से फर्श पर बसपा: कभी प्रदेश में राज करने वाली पार्टी...अस्तित्व खोज रही* जनता से दूरी बनी पतन का कारण? ~~~~~~~~ उत्तर प्रदेश में शनिवार को उपचुनाव की मतगणना की जा रही है। इसमें बसपा अपना अस्तित्व खोती नजर आ रही है। कभी उपचुनाव न लड़ने वाली बसपा ने इस बार सभी नौ सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। लेकिन, वह कुछ खास नहीं कर सके। या यूं कहें कि बसपा को उबारने में सहायक साबित नहीं हो सके तो गलत नहीं होगा। 2019 लोकसभा चुनाव के बाद से बसपा लगातार नीचे की ओर बढ़ती दिख रही है। पहली बार बसपा ने उपचुनाव लड़ने का एलान किया। लेकिन, इसमें भी कुछ हासिल नहीं कर सकी। सभी नौ सीटों की बात करें तो किसी में तीसरे या फिर उससे निचले पायदान पर नजर आ रही है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। इनमें एक प्रमुख कारण बड़े नेताओं का चुनाव प्रचार से दूरी बनाना भी देखा जा रहा है। चुनाव प्रचार से दूरी बसपा के लिए आमजन से दूरी बन गई। उसके प्रत्याशी लोगों के दिल में जगह नहीं बना पाए। *लगातार नीचे की ओर खिसकती जा रही बसपा* पार्टी प्रमुख मायावती समेत लगभग सभी बड़े नेताओं ने एक भी सीट पर एक भी रैली नहीं की। ऐसे में जब सत्तासीन भाजपा और सपा के साथ मुकाबला कड़ा था। तब भी प्रत्याशियों के कंधों पर ही मैदान फतह करने की जिम्मेदारी रही। इसका खामियाजा भी बसपा को भुगतना पड़ा। इसका असर चुनाव परिणाम में साफ दिख रहा है। 2019 के बाद से बसपा लगातार नीचे की ओर खिसकती जा रही है। *आइए एक नजर डालते हैं 2019 के बाद बसपा के राजनीतिक सफर पर...* वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव हुए। इसमें बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया। इस चुनाव में बसपा को 10 सीटें हासिल हुईं। इसके बाद वर्ष 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन समाप्त कर लिया। इस चुनाव में इसका असर भी दिखा। बसपा को महज एक सीट पर जीत मिली। जो कि बसपा के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था। *बसपा को आमचुनाव में एक भी सीट नहीं मिली* इसके बाद वर्ष 2024 के आमचुनाव में भी बसपा ने अकेले लड़ने की घोषणा की। सभी 80 सीटों पर पार्टी ने अपने प्रत्याशी उतारे। मेहनत भी की गई। लेकिन, ना तो आलाकमान और ना ही पार्टी प्रत्याशी जनता के मन में जगह बना पाए। नतीजा आए तो बसपा के साथ ही उसके समर्थकों के लिए भी चौंकाने वाले थे। बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था। यानि बसपा को आमचुनाव में एक भी सीट नहीं मिली। *सभी नौ सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का एलान* आमचुनाव में मिली हार के बाद बसपा को यूपी में वापसी की उम्मीद थी। शायद इसीलिए कभी उपचुनाव ना लड़ने वाली बसपा ने इस बार उपचुनाव लड़ने का फैसला किया। बसपा सुप्रीमो मायावती ने सभी नौ सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का एलान किया। लेकिन, अब जब नतीजे आ रहे हैं तो बसपा को एक भी सीट मिलते नहीं दिख रही है। किसी भी सीट पर वह लड़ाई पर भी नहीं है। *आक्रामक प्रचार रहा गायब* राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो पार्टी के शीर्ष नेताओं की जनता से दूरी भी इस हार का कारण बनती जा रही है। उपचुनाव में सभी नौ सीटों पर प्रत्याशी उतारने के बाद पार्टी ने स्टार प्रचारकों की सूची जारी की। इसमें पार्टी प्रमुख मायावती, आकाश आनंद और सतीश चंद्र मिश्र सहित करीब 40 नेताओं को मैदान संभालने की जिम्मेदारी मिली। लेकिन, समय बीतता गया और यूपी में मायावती समेत लगभग किसी भी बड़े नेता की कोई जनसभा नहीं हुई है। *पारंपरिक वोट साथ में रखने में नाकाम* आमजन से दूरी का आलम यहां तक रहा कि बसपा अपने पारंपरिक वोट भी पूरी तरह से पक्ष में नहीं ला सकी। बसपा का कोर वोटर दलित माना जाता है। लेकिन, बसपा उसे भी बांधकर रखने में असफल साबित हो रही है। चुनाव नतीजों में इसका असर साफ दिख रहा है। *संविधान और जाति जनगणना का भी असर* पिछले कुछ समय से संविधान और जाति जनगणना को लेकर राजनीतिक बयानबाजी काफी तेज है। भाजपा और सपा इस पर अपने-अपने गुणा-गणित के हिसाब से बयानबाजी करती रही। लेकिन, बसपा ने खुलकर इस पर कुछ नहीं कहा। इसका भी असर बसपा के कोर वोटर समेत नए वोटरों पर दिख रहा है।
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