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Suresh Chandra Agrawal: सदा जपिये हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे I हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे और हमेशा खुश रहिये Ii हमेशा प्रसन्न रहो 🌹🙏🏾 🌹🌹🌹🌹श्री कृष्ण कहते है 🌹🌹🌹🌹 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 अहंकार को त्यागो, प्रेम में खो जाओ। प्रेम एक स्वतंत्र और निःस्वार्थ भावना है जो तुम्हें आत्मा के समीप ले जाती है। 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 जब तुम प्रेम के साथ सबका भला करते हो, तो तुम परमात्मा के साथ एकीभाव में हो जाते हो। सबकी मदद करने में आनंद और सुख होता है। 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 🌸🌹🌸🌹🌸🌹🌸🌹🌸🌹            *अचानक एक मोड़ पर सुख और दुःख की मुलाकात हो गई* *🌹दुःख ने सुख से कहा🌹* *तुम कितने भाग्यशाली हो* *जो लोग तुम्हें पाने की कोशिश में लगे *रहते हैं....🙏* *🌸सुख ने मुस्कराते हुए कहा🌸* *भाग्यशाली मैं नहीं तुम हो...!* *दुःख ने हैरानी से पूछा : - "वो कैसे* *सुख ने बड़ी ईमानदारी से जबाब  दिया 👍* *वो ऐसे कि तुम्हें पाकर लोग अपनों को याद करते हैं 🙏* *लेकिन मुझे पाकर सब अपनों को भूल जाते हैं*              *🙏🏹🌹आपका दिन शुभ हो🙏🏹🌹* ---------------- *Bhagavad Gita App* *Chapter:* 7 *श्लोक:* 1 *श्लोक:* श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: । असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥ १ ॥ *अनुवाद:* श्रीभगवान् ने कहा—हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो। *तात्पर्य:* भगवद्गीता के इस सातवें अध्याय में कृष्णभावनामृत की प्रकृति का विशद वर्णन हुआ है। कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और वे इन्हें किस प्रकार प्रकट करते हैं, इसका वर्णन इसमें हुआ है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में इसका भी वर्णन है कि चार प्रकार के भाग्यशाली व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त होते हैं और चार प्रकार के भाग्यहीन व्यक्ति कृष्ण की शरण में कभी नहीं आते। प्रथम छ: अध्यायों में जीवात्मा को अभौतिक आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है जो विभिन्न प्रकार के योगों द्वारा आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है। छठे अध्याय के अन्त में यह स्पष्ट कहा गया है कि मन को कृष्ण पर एकाग्र करना या दूसरे शब्दों में कृष्णभावनामृत ही सर्वोच्च योग है। मन को कृष्ण पर एकाग्र करने से ही मनुष्य परम सत्य को पूर्णतया जान सकता है, अन्यथा नहीं। निर्विशेष ब्रह्मज्योति या अन्तर्यामी परमात्मा की अनुभूति परम सत्य का पूर्णज्ञान नहीं है, क्योंकि यह आंशिक होती है। कृष्ण ही पूर्ण तथा वैज्ञानिक ज्ञान हैं और कृष्णभावनामृत में ही मनुष्य को सारी अनुभूति होती है। पूर्ण कृष्णभावनामृत में मनुष्य जान पाता है कि कृष्ण ही निस्सन्देह परम ज्ञान हैं। विभिन्न प्रकार के योग तो कृष्णभावनामृत के मार्ग के सोपान सदृश हैं। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है, वह स्वत: ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा के विषय में पूरी तरह जान लेता है। कृष्णभावनामृत योग का अभ्यास करके मनुष्य सभी वस्तुओं को—यथा परम सत्य, जीवात्माएँ, प्रकृति तथा साज-सामग्री समेत उनके प्राकट्य को पूरी तरह जान सकता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि छठे अध्याय के अन्तिम श्लोक के अनुसार योग का अभ्यास करे। परमेश्वर कृष्ण पर ध्यान की एकाग्रता को नवधा भक्ति के द्वारा सम्भव बनाया जाता है जिसमें श्रवणम् अग्रणी एवं सबसे महत्त्वपूर्ण है। अत: भगवान् अर्जुन से कहते हैं—तच्छृणु—अर्थात् “मुझसे सुनो”। कृष्ण से बढक़र कोई प्रमाण नहीं, अत: उनसे सुनने का जिसे सौभाग्य प्राप्त होता है वह पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो जाता है। अत: मनुष्य को या तो साक्षात् कृष्ण से या कृष्ण के शुद्धभक्त से सीखना चाहिए, न कि अपनी शिक्षा का अभिमान करने वाले अभक्त से। परम सत्य श्रीभगवान् कृष्ण को जानने की विधि का वर्णन श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के द्वितीय अध्याय में इस प्रकार हुआ है— शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन:। हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥ नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया। भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ तदा रजस्तमोभावा: कामलोभादयश्च ये। चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥ एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगत:। भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसंगस्य जायते ॥ भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया:। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ “वैदिक साहित्य से श्रीकृष्ण के विषय में सुनना या भगवद्गीता से साक्षात् उन्हीं से सुनना अपने आपमें पुण्यकर्म है। और जो प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान् कृष्ण के विषय में सुनता है, उसके लिए वे शुभेच्छु मित्र की भाँति कार्य करते हैं और जो भक्त निरन्तर उनका श्रवण करता है, उसे वे शुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार भक्त अपने सुप्त दिव्यज्ञान को फिर से पा लेता है। ज्यों-ज्यों वह भागवत तथा भक्तों से कृष्ण के विषय में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति में स्थिर होता जाता है। भक्ति के विकसित होने पर वह रजो तथा तमो गुणों से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार भौतिक काम तथा लोभ कम हो जाते हैं। जब ये कल्मष दूर हो जाते हैं तो भक्त सतोगुण में स्थिर हो जाता है, भक्ति के द्वारा स्फूर्ति प्राप्त करता है और भगवत्-तत्त्व को पूरी तरह जान लेता है। भक्तियोग भौतिक मोह की कठिन ग्रंथि को भेदता है और भक्त को असंशयं समग्रम् अर्थात् परम सत्य श्रीभगवान् को समझने की अवस्था को प्राप्त कराता है (भागवत् १.२.१७-२१)।” अत: श्रीकृष्ण से या कृष्णभावनाभावित भक्तों के मुखों से सुनकर ही कृष्णतत्त्व को जाना जा सकता है I 🌹🌹🌹🌹हरे कृष्णा 🌹🌹🌹🌹 समर्पण एक बार नारद जी ने द्वारकाधीश से पूछा- "प्रभु! क्या कारण है की सर्वत्र संसार में राधे-राधे हो रहा है। आपकी महापटरानी 'रुकमणी' और अन्य रानियों को तो ब्रज तक में कोई याद नहीं करता।" कृष्ण यह सुनकर नारद के सामने ही पलंग पर धड़ाम से गिर गए। घबराए हुए नारद ने पूछा- क्या हुआ प्रभु ! तब श्री कृष्ण ने कहा- नारद मेरे सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है,तुम कुछ करो। नारद को आश्चर्य हुआ। वे बोले- कि आप त्रिलोकीनाथ हो, आप ही बताओ मैं क्या कर सकता हूं? कृष्ण बोले -"मेरे किसी सच्चे भक्त के पास जाकर,उसके चरणों की रज लेकर आओ, उसे मेरे मस्तक पर लेप करूंगा, तो दर्द ठीक हो जाएगा।" नारद जी असमंजस में वहां से दौड़े और सबसे पहले रुक्मणी के पास जाकर, उन्हें अपने चरणों की धूलि देने को कहा। रुक्मणी ने अपने पांव पीछे खींच लिए।  वे बोली कि, "यह आप क्या कर रहे हो ? कृष्ण मेरे पति हैं, मेरे चरणों की रज यदि उनके माथे पर लगी, तो मुझे नर्क में जाना पड़ेगा!" यही जवाब अन्य रानियों ने भी दिया। नारद निराश हो गए और तुरंत मन की गति से राधा जी के पास पहुंच कर, उन्हें सारी बात बतलाई। राधा अत्यंत व्याकुल हो गई और नारद से पूछा -मेरे प्रभु को सर में दर्द हुए कितनी देर हो गई ? नारद ने बतलाया कि, यही कोई दो घंटे हुआ है। इस पर राधा नारद जी पर नाराज हो गई। उन्होंने कहा- "मेरे प्रियतम को दो घंटे से जो वेदना हो रही है, उसके लिए आप ही जिम्मेवार हो। आप मेरे चरणों की रज लेने तुरंत ही क्यों नहीं आए। अभी जितनी ले जाना हो, ले जाओ। उसके बदले में मुझे, एक बार तो क्या, हजार बार भी नरक जाना पड़े,तो स्वीकार है।" राधा की चरण रज लेकर नारद कृष्ण के पास पहुंचे । कृष्ण ने उस रज का अपने मस्तक पर लेप किया और सिर दर्द ठीक हो गया। कृष्णजी ने नारद से पूछा- "कुछ समझ में आया कि,  सर्वत्र राधे-राधे क्यों हो रहा है?" नारद बोले कि, हां समझ में आ गया प्रभु! "और यह भी समझ में आया कि, आप जिससे प्रेम करते हो, उसे एक क्षण भी तकलीफ में नहीं देख सकते। चाहे उसके बदले में आपको कैसा भी त्याग क्यों ना करना पड़े।" यही सच्चा प्रेम है। समर्पण लेने की बात नहीं सोचता, केवल देने की सोचता है,केवल देने की..!! मंगलमय प्रभात प्रणाम *सर्दी एवं खांसी को दूर भगाने के घरेलू नुस्खे* नियमित रूप से गुनगुने पानी का सेवन करें क्योंकि यह सामान्य सर्दी, खांसी एवं गले की खराश से लड़ने में आपकी सहायता करता है। गर्म पानी गले में सूजन को कम करता है एवं शरीर में खोये हुए द्रव्यों की मात्रा की पूर्ति करने एवं शरीर से संक्रमण बाहर निकालने में मदद करता है। थोड़ी सी मात्रा में अदरक को काटें एवं इसका रस निकालें। इसके अलावा, काली मिर्च के कुछ कॉर्न्स (corns) को भूनकर इसे पाउडर का रूप दे दें। अदरक के रस, मिर्च के पाउडर, थोड़ी सी हल्दी एवं थोड़े से शहद को मिश्रित करें एवं इससे एक गाढ़ा पेस्ट बनाएं। अब इसे छोटा गोलाकार आकार दें जिससे ये टॉफ़ी (toffee) का आकार धारण कर सके। इसे अपने मुंह में डालें एवं करीब 10 से 15 मिनट तक इसे चूसते रहें। राहत प्राप्त करने के लिए इस प्रक्रिया को दिन में दो से तीन बार दोहराएं। दूध और हल्दी सर्दी और खांसी के सबसे असरदार इलाजों में से एक है। इसके लिए दूध को गर्म करें और इसमें हल्दी का पाउडर मिश्रित करें। यह खांसी का भी रामबाण इलाज साबित होता है।

on 20 September
user_Suresh Chandra Agrawal
Suresh Chandra Agrawal
Chomu, Jaipur•
on 20 September

Suresh Chandra Agrawal: सदा जपिये हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे I हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे और हमेशा खुश रहिये Ii हमेशा प्रसन्न रहो 🌹🙏🏾 🌹🌹🌹🌹श्री कृष्ण कहते है 🌹🌹🌹🌹 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 अहंकार को त्यागो, प्रेम में खो जाओ। प्रेम एक स्वतंत्र और निःस्वार्थ भावना है जो तुम्हें आत्मा के समीप ले जाती है। 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 जब तुम प्रेम के साथ सबका भला करते हो, तो तुम परमात्मा के साथ एकीभाव में हो जाते हो। सबकी मदद करने में आनंद और सुख होता है। 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿 🌸🌹🌸🌹🌸🌹🌸🌹🌸🌹            *अचानक एक मोड़ पर सुख और दुःख की मुलाकात हो गई* *🌹दुःख ने सुख से कहा🌹* *तुम कितने भाग्यशाली हो* *जो लोग तुम्हें पाने की कोशिश में लगे *रहते हैं....🙏* *🌸सुख ने मुस्कराते हुए कहा🌸* *भाग्यशाली मैं नहीं तुम हो...!* *दुःख ने हैरानी से पूछा : - "वो कैसे* *सुख ने बड़ी ईमानदारी से जबाब  दिया 👍* *वो ऐसे कि तुम्हें पाकर लोग अपनों को याद करते हैं 🙏* *लेकिन मुझे पाकर सब अपनों को भूल जाते हैं*              *🙏🏹🌹आपका दिन शुभ हो🙏🏹🌹* ---------------- *Bhagavad Gita App* *Chapter:* 7 *श्लोक:* 1 *श्लोक:* श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: । असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥ १ ॥ *अनुवाद:* श्रीभगवान् ने कहा—हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो। *तात्पर्य:* भगवद्गीता के इस सातवें अध्याय में कृष्णभावनामृत की प्रकृति का विशद वर्णन हुआ है। कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और वे इन्हें किस प्रकार प्रकट करते हैं, इसका वर्णन इसमें हुआ है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में इसका भी वर्णन है कि चार प्रकार के भाग्यशाली व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त होते हैं और चार प्रकार के भाग्यहीन व्यक्ति कृष्ण की शरण में कभी नहीं आते। प्रथम छ: अध्यायों में जीवात्मा को अभौतिक आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है जो विभिन्न प्रकार के योगों द्वारा आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है। छठे अध्याय के अन्त में यह स्पष्ट कहा गया है कि मन को कृष्ण पर एकाग्र करना या दूसरे शब्दों में कृष्णभावनामृत ही सर्वोच्च योग है। मन को कृष्ण पर एकाग्र करने से ही मनुष्य परम सत्य को पूर्णतया जान सकता है, अन्यथा नहीं। निर्विशेष ब्रह्मज्योति या अन्तर्यामी परमात्मा की अनुभूति परम सत्य का पूर्णज्ञान नहीं है, क्योंकि यह आंशिक होती है। कृष्ण ही पूर्ण तथा वैज्ञानिक ज्ञान हैं और कृष्णभावनामृत में ही मनुष्य को सारी अनुभूति होती है। पूर्ण कृष्णभावनामृत में मनुष्य जान पाता है कि कृष्ण ही निस्सन्देह परम ज्ञान हैं। विभिन्न प्रकार के योग तो कृष्णभावनामृत के मार्ग के सोपान सदृश हैं। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है, वह स्वत: ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा के विषय में पूरी तरह जान लेता है। कृष्णभावनामृत योग का अभ्यास करके मनुष्य सभी वस्तुओं को—यथा परम सत्य, जीवात्माएँ, प्रकृति तथा साज-सामग्री समेत उनके प्राकट्य को पूरी तरह जान सकता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि छठे अध्याय के अन्तिम श्लोक के अनुसार योग का अभ्यास करे। परमेश्वर कृष्ण पर ध्यान की एकाग्रता को नवधा भक्ति के द्वारा सम्भव बनाया जाता है जिसमें श्रवणम् अग्रणी एवं सबसे महत्त्वपूर्ण है। अत: भगवान् अर्जुन से कहते हैं—तच्छृणु—अर्थात् “मुझसे सुनो”। कृष्ण से बढक़र कोई प्रमाण नहीं, अत: उनसे सुनने का जिसे सौभाग्य प्राप्त होता है वह पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो जाता है। अत: मनुष्य को या तो साक्षात् कृष्ण से या कृष्ण के शुद्धभक्त से सीखना चाहिए, न कि अपनी शिक्षा का अभिमान करने वाले अभक्त से। परम सत्य श्रीभगवान् कृष्ण को जानने की विधि का वर्णन श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के द्वितीय अध्याय में इस प्रकार हुआ है— शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन:। हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥ नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया। भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ तदा रजस्तमोभावा: कामलोभादयश्च ये। चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥ एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगत:। भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसंगस्य जायते ॥ भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया:। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ “वैदिक साहित्य से श्रीकृष्ण के विषय में सुनना या भगवद्गीता से साक्षात् उन्हीं से सुनना अपने आपमें पुण्यकर्म है। और जो प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान् कृष्ण के विषय में सुनता है, उसके लिए वे शुभेच्छु मित्र की भाँति कार्य करते हैं और जो भक्त निरन्तर उनका श्रवण करता है, उसे वे शुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार भक्त अपने सुप्त दिव्यज्ञान को फिर से पा लेता है। ज्यों-ज्यों वह भागवत तथा भक्तों से कृष्ण के विषय में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति में स्थिर होता जाता है। भक्ति के विकसित होने पर वह रजो तथा तमो गुणों से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार भौतिक काम तथा लोभ कम हो जाते हैं। जब ये कल्मष दूर हो जाते हैं तो भक्त सतोगुण में स्थिर हो जाता है, भक्ति के द्वारा स्फूर्ति प्राप्त करता है और भगवत्-तत्त्व को पूरी तरह जान लेता है। भक्तियोग भौतिक मोह की कठिन ग्रंथि को भेदता है और भक्त को असंशयं समग्रम् अर्थात् परम सत्य श्रीभगवान् को समझने की अवस्था को प्राप्त कराता है (भागवत् १.२.१७-२१)।” अत: श्रीकृष्ण से या कृष्णभावनाभावित भक्तों के मुखों से सुनकर ही कृष्णतत्त्व को जाना जा सकता है I 🌹🌹🌹🌹हरे कृष्णा 🌹🌹🌹🌹 समर्पण एक बार नारद जी ने द्वारकाधीश से पूछा- "प्रभु! 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चित्तौड़गढ़ जिले के मंगलवाड़ क्षेत्र में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह घटना न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि प्रदेश की कानून व्यवस्था पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े करती है।
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