में क्षर ब्रह्म,अक्षर ब्रह्म से भी परे अक्षरातीत सच्चिदानन्द परब्रह्म हु । तुम मेरी आनन्द शक्ति श्यामाजी हाे और में तुम्हारा प्राण प्रियतम प्राणनाथ हु। हमारा धाम क्षर, अक्षर से परे दिव्य ब्रह्मपुर परमधाम है। #तब मोको कहा पूछना, ए कहे तारतम बीज वचन। #फेर के अदृष्ट भए, प्रफुल्लित हुआ मन।।३५।। तब श्री देवचन्द्र जी बोले- जब आप मेरे अन्दर ही विराजमान होंगे, तो मुझे पूछने की क्या आवश्यकता है? श्री राज जी एवं श्री देवचन्द्र जी के बीच में होने वाली यह वार्ता ही तारतम का बीज रूप है। यह कहकर श्री राज जी श्री देवचन्द्र जी के धाम हृदय में विराजमान हो गये, जिससे श्री देवचन्द्र जी का मन अत्यधिक आनन्द में डूब गया। भावार्थ- जब श्री देवचन्द्र जी के धाम हृदय में श्री राज जी विराजमान हो गये। तब उनके मुख से एक चौपाई अवतरित हुई- φ'निजनाम श्री कृष्ण जी, अनादि अछरातीत। सो तो अब जाहेर भए, सब विध वतन सहीत।।'ψ अर्थात् जिस अक्षरातीत ने व्रज-रास में श्री कृष्ण नाम से लीला की थी, जो अनादि है और अक्षर से भी परे है, वह अपने परमधाम के सम्पूर्ण ज्ञान शोभा तथा आनन्द के साथ मेरे धाम हृदय में प्रकट हो गये हैं। यह मान्यता पूर्णतया भ्रान्तिपूर्ण है कि श्याम जी के मन्दिर में श्री देवचन्द्र जी से अक्षरातीत कहते हैं कि हे श्यामा जी! मेरा नाम श्री कृष्ण है और मैं अनादि हूँ तथा अक्षर से भी परे अक्षरातीत श्री कृष्ण हूँ। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यद्यपि आवेश स्वरूप से श्री राज जी ही कह रहे हैं, किन्तु श्यामा जी के द्वारा यह चौपाई कहलवायी गयी है, इसलिये इस चौपाई के तीसरे चरण में φ'सो तो (प्रथम पुरुष) अब जाहेर भए'ψ लिखा है। यदि श्री राज जी की ओर से कहा गया होता तो 'मैं तो (उत्तम पुरूष) अब जाहिर भया' होता। वस्तुतः श्री राज जी और श्री देवचन्द्र जी के बीच में जो वार्ता हुई, उसे तारतम का बीज (कारण) इसलिये कहा गया है कि उसका ही संक्षिप्त रूप एक चौपाई के रूप में श्री देवचन्द्र जी के तन से उतरा जो कालान्तर में छः चौपाइयों के रूप में प्रकट हुआ और उसी का विस्तार श्रीमुख (तारतम) वाणी है। जब श्रीजी दीपबन्दर पधारे तो वहां पर दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं चौपाई उतरी। उस समय श्री देवचन्द्र जी सत्य छे उतरा था, किन्तु अनूपशहर में जब प्रकाश हिन्दुस्तानी की प्रकटवाणी का अवतरण होने लगा तो उसके स्थान पर φ'श्री श्यामा जी वर सत्य है'ψ हो गया और छठी चौपाई भी जुड़ गयी। सनद के अवतरण के समय से φ'निजनाम श्रीजी साहेब जी अनादि अक्षरातीत'ψ का प्रचलन हो गया, क्योंकि सनद वाणी से मुस्लिम लोगों को जागृत करना था। इस तारतम में हिन्दू-मुस्लिम सब का परब्रह्म एक अक्षरातीत श्रीजी को माना गया है। हिन्दुओं के लिये जहाँ वे 'श्रीजी' हैं, कतेब परम्परा वालों के लिये वे 'साहेब जी' हैं। सनन्ध ४२/१६ में कहा गया है कि φ'कोई दूजा मरद न कहावहीं, एक मेंहेंदी पाक पूरन।'ψ श्री प्राणनाथ जी के अतिरिक्त इस जागनी ब्रह्माण्ड में कोई दूसरा अक्षरातीत नहीं हो सकता। इस आधार पर तारतम में श्री कृष्ण जी की जगह 'श्रीजी साहेब जी' के नाम का उल्लेख हुआ है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि परम्परा रूप में 'निजनाम श्री कृष्ण जी' का तारतम मान्य है और मंगलाचरण के रूप में प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में यही लिखने की परम्परा है, किन्तु तारतम वाणी के सैद्धान्तिक पक्ष को देखने से यही निर्णय निकलता है कि इस जागनी ब्रह्माण्ड में सबके परब्रह्म श्री प्राणनाथ (श्रीजी) हैं। φ'सुर असुर सबों के ए पति, सब पर एकै दया। देत दीदार सबन को सांईं, जिनहूं जैसा चाह्या।।'ψ किरन्तन ५९/७ इस विचारधारा के अनुसार 'निजनाम श्रीजी साहिब जी' का तारतम प्रारम्भ हुआ है। इस प्रकार दोनों तारतम प्रचलित हैं, जो अपनी-अपनी आस्था, परम्परा और सिद्धान्त के आधार पर माने जाते हैं।
में क्षर ब्रह्म,अक्षर ब्रह्म से भी परे अक्षरातीत सच्चिदानन्द परब्रह्म हु । तुम मेरी आनन्द शक्ति श्यामाजी हाे और में तुम्हारा प्राण प्रियतम प्राणनाथ हु। हमारा धाम क्षर, अक्षर से परे दिव्य ब्रह्मपुर परमधाम है। #तब मोको कहा पूछना, ए कहे तारतम बीज वचन। #फेर के अदृष्ट भए, प्रफुल्लित हुआ मन।।३५।। तब श्री देवचन्द्र जी बोले- जब आप मेरे अन्दर ही विराजमान होंगे, तो मुझे पूछने की क्या आवश्यकता है? श्री राज जी एवं श्री देवचन्द्र जी के बीच में होने वाली यह वार्ता ही तारतम का बीज रूप है। यह कहकर श्री राज जी श्री देवचन्द्र जी के धाम हृदय में विराजमान हो गये, जिससे श्री देवचन्द्र जी का मन अत्यधिक आनन्द में डूब गया। भावार्थ- जब श्री देवचन्द्र जी के धाम हृदय में श्री राज जी विराजमान हो गये। तब उनके मुख से एक चौपाई अवतरित हुई- φ'निजनाम श्री कृष्ण जी, अनादि अछरातीत। सो तो अब जाहेर भए, सब विध वतन सहीत।।'ψ अर्थात् जिस अक्षरातीत ने व्रज-रास में श्री कृष्ण नाम से लीला की थी, जो अनादि है और अक्षर से भी परे है, वह अपने परमधाम के सम्पूर्ण ज्ञान शोभा तथा आनन्द के साथ मेरे धाम हृदय में प्रकट हो गये हैं। यह मान्यता पूर्णतया भ्रान्तिपूर्ण है कि श्याम जी के मन्दिर में श्री देवचन्द्र जी से अक्षरातीत कहते हैं कि हे श्यामा जी! मेरा नाम श्री कृष्ण है और मैं अनादि हूँ तथा अक्षर से भी परे अक्षरातीत श्री कृष्ण हूँ। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यद्यपि आवेश स्वरूप से श्री राज जी ही कह रहे हैं, किन्तु श्यामा जी के द्वारा यह चौपाई कहलवायी गयी है, इसलिये इस चौपाई के तीसरे चरण में φ'सो तो (प्रथम पुरुष) अब जाहेर भए'ψ लिखा है। यदि श्री राज जी की ओर से कहा गया होता तो 'मैं तो (उत्तम पुरूष) अब जाहिर भया' होता। वस्तुतः श्री राज जी और श्री देवचन्द्र जी के बीच में जो वार्ता हुई, उसे तारतम का बीज (कारण) इसलिये कहा गया है कि उसका ही संक्षिप्त रूप एक चौपाई के रूप में श्री देवचन्द्र जी के तन से उतरा जो कालान्तर में छः चौपाइयों के रूप में प्रकट हुआ और उसी का विस्तार श्रीमुख (तारतम) वाणी है। जब श्रीजी दीपबन्दर पधारे तो वहां पर दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं चौपाई उतरी। उस समय श्री देवचन्द्र जी सत्य छे उतरा था, किन्तु अनूपशहर में जब प्रकाश हिन्दुस्तानी की प्रकटवाणी का अवतरण होने लगा तो उसके स्थान पर φ'श्री श्यामा जी वर सत्य है'ψ हो गया और छठी चौपाई भी जुड़ गयी। सनद के अवतरण के समय से φ'निजनाम श्रीजी साहेब जी अनादि अक्षरातीत'ψ का प्रचलन हो गया, क्योंकि सनद वाणी से मुस्लिम लोगों को जागृत करना था। इस तारतम में हिन्दू-मुस्लिम सब का परब्रह्म एक अक्षरातीत श्रीजी को माना गया है। हिन्दुओं के लिये जहाँ वे 'श्रीजी' हैं, कतेब परम्परा वालों के लिये वे 'साहेब जी' हैं। सनन्ध ४२/१६ में कहा गया है कि φ'कोई दूजा मरद न कहावहीं, एक मेंहेंदी पाक पूरन।'ψ श्री प्राणनाथ जी के अतिरिक्त इस जागनी ब्रह्माण्ड में कोई दूसरा अक्षरातीत नहीं हो सकता। इस आधार पर तारतम में श्री कृष्ण जी की जगह 'श्रीजी साहेब जी' के नाम का उल्लेख हुआ है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि परम्परा रूप में 'निजनाम श्री कृष्ण जी' का तारतम मान्य है और मंगलाचरण के रूप में प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में यही लिखने की परम्परा है, किन्तु तारतम वाणी के सैद्धान्तिक पक्ष को देखने से यही निर्णय निकलता है कि इस जागनी ब्रह्माण्ड में सबके परब्रह्म श्री प्राणनाथ (श्रीजी) हैं। φ'सुर असुर सबों के ए पति, सब पर एकै दया। देत दीदार सबन को सांईं, जिनहूं जैसा चाह्या।।'ψ किरन्तन ५९/७ इस विचारधारा के अनुसार 'निजनाम श्रीजी साहिब जी' का तारतम प्रारम्भ हुआ है। इस प्रकार दोनों तारतम प्रचलित हैं, जो अपनी-अपनी आस्था, परम्परा और सिद्धान्त के आधार पर माने जाते हैं।
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- Post by Ravi Kumar1
- Jai Bihar 🙏1