कोविड काल था,हर तरफ सन्नाटे का राज था। मौहल्ले, सड़के गालियां तो दिन में भी सूनी रहती थी रात का सन्नाटा अगर टूटता था तो सिर्फ एम्बुलेंस के सायरन से। उस रात मै करीब 12 बजे सो गया था परन्तु कोई आधे घंटे बाद ही उठना पड़ा ,....बेटी और बेटा पीछे गली में ,पहली मंजिल से शोर मचा किसी को हटा रहे थे । पता चला एक बिल्ली के छोटे बच्चे पर तीन कुत्तो ने हमला कर दिया है, हल्ला मचा कर कुत्तो को तो भगा दिया पर बिल्ली का बच्चा घायल , निढाल सा चित पड़ा निरीह आंखों से ऊपर हमे या शायद शुन्य में ही ताक रहा था। बेटा भाग कर तुरंत पीछे गली में पहुँचा और ऊपर मुँह कर बोला "पापा सांस तो चल रही है,अभी जिंदा है ,हॉस्पिटल ले चलते हैं,बच जाएगा"। अब दोनो बच्चे मेरे पीछे पड़ गये की इसे हॉस्पिटल ले चलो।मेरी प्रतिक्रिया से पहले ही बेटी ने तो रुआसी हो लगभग धमकी ही दे डाली कि जल्दी करो.."अगर इसे कुछ हो गया तो बात नही करूंगी"। अपने बच्चों में ये ममता ,करुणा एवं दयाभाव देख मुझे अच्छा लगा। फटाफट एक चादर में बिल्ली के बच्चे को उठा कार में रख चलने लगे तो बेटा बोला "इसे गोद में ले लो, झटके नहीं लगेंगे..., कार तेज चलानी पड़ेगी।" मै कुछ असहज था पर उस बच्चे की निरीह आँखों का आग्रह मेरी असहजता को धो गया,जैसे ही उसे गोदी में रखा तो अपनत्व का एक ऐसा रिश्ता जगा कि मानो वर्षों के संबंध हो हमारे । दोनो हाथों में ही सिमट गया था वो.. ,मुंह से जो हल्का सा म्याऊं म्याऊं निकल भी रहा था अब शांत था बस टक टकी सी लगा मुझे ही घूर रहा था शायद आंखों से कुछ कहना चाहता था। उसकी महीन पसलियों में, उसके सांसों के चलने से, जो आहट और ऊष्मा उत्पन्न हो रही थी उसे मैं आज भी अपनी उंगलियों में महसूस कर सकता हूं। . . चौराहों,लाल बत्तियों को लांघते हुए हम आधी रात को संजय गांधी पशु चिकित्सालय, राजौरी गार्डन,दिल्ली, पहुंचे जहां कई घायल पशु पक्षियों का इलाज चल रहा था।दर्द,पीड़ा और दुःख का साम्राज्य मनुष्य की सीमा को लांघ इन निरीह पशु पक्षियों की शक्लों में मेरा अंतर्मन प्रत्यक्ष महसूस कर रहा था। गहन जांच के बाद डॉ. महोदय ने उस नन्हे बिलोट को मृत घोषित कर दिया। . . मन धक सा बैठ गया... , डाक्टर महोदय ने जितनी आसानी से स्पष्ट कह दिया काश उतनी आसानी से मन भी स्वीकार करता ...देखता रहा कुछ पल उसके बेजान शरीर को और खोजता रहा जिंदगी की कोई एक हरकत...शायद अब हिले ...अब हिले । सोचने लगा... ताउम्र जो जीव लावारिस बिना किसी रिश्ते के जिया अब अंतिम समय में कुछ क्षण मेरी गोद मे किस रिश्ते से बैठा और दम तोड़ गया,उस निरीह नज़र में ऐसा क्या था जो जाते जाते भी एक रिश्ता जोड़ गया। शहरी जीवन में हम रोज हजारों मौतें देखते ,सुनते हैं पर अक्सर अनदेखा कर, गुजर जाते हैं और अगले ही क्षण भूल जाते हैं पर कभी कभी कुछ दृश्य जेहन में एक रिश्ता बन छप जाते हैं और समय लेते हैं धुलने में। ये कड़वा सच है कि.. दर्द हर मृत्यु का नहीं अपितु उस रिश्ते का महसूस होता है जो उस मृत्यु ने तोड़ दिया। . . "चले पापा" बेटे की आवाज ने मेरा ध्यान खींचा "चलो" रास्ते में मिट्टी में मिट्टी को मिला घर आ गए पर नींद नही आ रही थी... सोचता रहा कि .. मै ज्यादा भावुक हूँ या मृत्यु का अपना वजन होता है।
कोविड काल था,हर तरफ सन्नाटे का राज था। मौहल्ले, सड़के गालियां तो दिन में भी सूनी रहती थी रात का सन्नाटा अगर टूटता था तो सिर्फ एम्बुलेंस के सायरन से। उस रात मै करीब 12 बजे सो गया था परन्तु कोई आधे घंटे बाद ही उठना पड़ा ,....बेटी और बेटा पीछे गली में ,पहली मंजिल से शोर मचा किसी को हटा रहे थे । पता चला एक बिल्ली के छोटे बच्चे पर तीन कुत्तो ने हमला कर दिया है, हल्ला मचा कर कुत्तो को तो भगा दिया पर बिल्ली का बच्चा घायल , निढाल सा चित पड़ा निरीह आंखों से ऊपर हमे या शायद शुन्य में ही ताक रहा था। बेटा भाग कर तुरंत पीछे गली में पहुँचा और ऊपर मुँह कर बोला "पापा सांस तो चल रही है,अभी जिंदा है ,हॉस्पिटल ले चलते हैं,बच जाएगा"। अब दोनो बच्चे मेरे पीछे पड़ गये की इसे हॉस्पिटल ले चलो।मेरी प्रतिक्रिया से पहले ही बेटी ने तो रुआसी हो लगभग धमकी ही दे डाली कि जल्दी करो.."अगर इसे कुछ हो गया तो बात नही करूंगी"। अपने बच्चों में ये ममता ,करुणा एवं दयाभाव देख मुझे अच्छा लगा। फटाफट एक चादर में बिल्ली के बच्चे को उठा कार में रख चलने लगे तो बेटा बोला "इसे गोद में ले लो, झटके नहीं लगेंगे..., कार तेज चलानी पड़ेगी।" मै कुछ असहज था पर उस बच्चे की निरीह आँखों का आग्रह मेरी असहजता को धो गया,जैसे ही उसे गोदी में रखा तो अपनत्व का एक ऐसा रिश्ता जगा कि मानो वर्षों के संबंध हो हमारे । दोनो हाथों में ही सिमट गया था वो.. ,मुंह से जो हल्का सा म्याऊं म्याऊं निकल भी रहा था अब शांत था बस टक टकी सी लगा मुझे ही घूर रहा था शायद आंखों से कुछ कहना चाहता था। उसकी महीन पसलियों में, उसके सांसों के चलने से, जो आहट और ऊष्मा उत्पन्न हो रही थी उसे मैं आज भी अपनी उंगलियों में महसूस कर सकता हूं। . . चौराहों,लाल बत्तियों को लांघते हुए हम आधी रात को संजय गांधी पशु चिकित्सालय, राजौरी गार्डन,दिल्ली, पहुंचे जहां कई घायल पशु पक्षियों का इलाज चल रहा था।दर्द,पीड़ा और दुःख का साम्राज्य मनुष्य की सीमा को लांघ इन निरीह पशु पक्षियों की शक्लों में मेरा अंतर्मन प्रत्यक्ष महसूस कर रहा था। गहन जांच के बाद डॉ. महोदय ने उस नन्हे बिलोट को मृत घोषित कर दिया। . . मन धक सा बैठ गया... , डाक्टर महोदय ने जितनी आसानी से स्पष्ट कह दिया काश उतनी आसानी से मन भी स्वीकार करता ...देखता रहा कुछ पल उसके बेजान शरीर को और खोजता रहा जिंदगी की कोई एक हरकत...शायद अब हिले ...अब हिले । सोचने लगा... ताउम्र जो जीव लावारिस बिना किसी रिश्ते के जिया अब अंतिम समय में कुछ क्षण मेरी गोद मे किस रिश्ते से बैठा और दम तोड़ गया,उस निरीह नज़र में ऐसा क्या था जो जाते जाते भी एक रिश्ता जोड़ गया। शहरी जीवन में हम रोज हजारों मौतें देखते ,सुनते हैं पर अक्सर अनदेखा कर, गुजर जाते हैं और अगले ही क्षण भूल जाते हैं पर कभी कभी कुछ दृश्य जेहन में एक रिश्ता बन छप जाते हैं और समय लेते हैं धुलने में। ये कड़वा सच है कि.. दर्द हर मृत्यु का नहीं अपितु उस रिश्ते का महसूस होता है जो उस मृत्यु ने तोड़ दिया। . . "चले पापा" बेटे की आवाज ने मेरा ध्यान खींचा "चलो" रास्ते में मिट्टी में मिट्टी को मिला घर आ गए पर नींद नही आ रही थी... सोचता रहा कि .. मै ज्यादा भावुक हूँ या मृत्यु का अपना वजन होता है।
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