आजादी के बाद भारत को लोकतांत्रिक देश बनाने में बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की अहम भूमिका थी, क्योंकि संविधान निर्माण में उनकी बड़ी रोल था. वह संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के मुखिया थे. 26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकार किया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया. इसके बाद ही भारत गणतंत्र कहलाया. फिर भी संविधान को अपनाने के महज तीन साल बाद एक वक्त ऐसा आ गया, जब संसद में उन्होंने संविधान को जलाने की बात तक कह डाली. राज्यसभा में बहस के दौरान उठा मुद्दा दो सितंबर 1953 की बात है. राज्यसभा में बहस चल रही थी संविधान संशोधन को लेकर और बाबा साहब राज्यपाल की शक्तियां बढ़ाने के मुद्दे पर अड़े थे. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा पर भी वह अडिग थे. इस बहस के दौरान बाबा साहब ने कहा कि छोटे तबके के लोगों को हमेशा डर लगा रहता है कि बहुसंख्यक उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं. उन्होंने कहा था, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि संविधान मैंने बनाया है. मैं बताना चाहता हूं कि इसको जलाने वाला पहला इंसान भी मैं ही होऊंगा. यह किसी के लिए भी ठीक नहीं है. कई लोग इसे लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं पर यह भी याद रखना होगा कि एक ओर बहुसंख्यक हैं और दूसरी ओर अल्पसंख्यक. बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते हैं कि अल्पसंख्यकों को महत्व नहीं दें. ऐसा करने से लोकतंत्र को ही नुकसान होगा. दो साल बाद पूछा गया बयान का कारण इस बहस के दो साल बाद ही 19 मार्च 1955 को राज्यसभा में यह मुद्दा तब फिर उठा, जब संविधान में चौथे संशोधन से जुड़े विधेयक पर चर्चा हो रही थी. सदन की चर्चा में हिस्सा लेने पहुंचे बाबा साहब से पंजाब से सांसद डॉ. अनूप सिंह ने सवाल पूछा था कि पिछली बार आखिर उन्होंने यह बयान क्यों दिया कि वह पहले इंसान होंगे जो संविधान को जलाएंगे. बाबा साहब ने तब बेबाकी से कहा कि पिछली बार जल्दबाजी में पूरा जवाब नहीं दे पाए थे. उन्होंने कहा, मैंने यह एकदम सोच-समझकर कहा था कि संविधान को जला देना चाहता हूं. डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि हम लोग मंदिर इसलिए बनाते हैं, जिससे भगवान आकर उसमें रहें. अगर भगवान से पहले ही दानव आकर रहने लगें तो मंदिर को नष्ट करने के सिवा और रास्ता ही क्या बचेगा. कोई यह सोचकर तो मंदिर बनाता नहीं है कि उसमें असुर रहने लगें. सब चाहते हैं कि मंदिर में देवों का निवास हो. यही कारण है कि संविधान जलाने की बात कही थी. अल्पसंख्यकों को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते बाबा साहब के इस जवाब पर एक सांसद ने कहा था कि मंदिर को ही नष्ट करने के बजाय आखिर दानव को समाप्त करने की बात क्यों नहीं करनी चाहिए. इस पर डॉ. आंबेडकर ने जवाब दिया कि हम ऐसा नहीं कर सकते. हमारे पास इतनी ताकत नहीं है. हमेशा असुरों ने देवों को हराया. अमृत उन्हीं के पास था, जिसे लेकर देवों को भागना पड़ा था. तब बाबा साहब ने कहा था कि संविधान को अगर हमें आगे लेकर जाना है तो एक बात का ध्यान रखना होगा कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों हैं और अल्पसंख्यकों को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. दरअसल, बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर उस वक्त संविधान के कई प्रावधानों में संशोधनों से काफी नाराज थे. उनका मानना था कि कोई भी संविधान कितना भी अच्छा क्यों नहीं हो, जब तक इसे ढंग से लागू नहीं किया जाएगा तो उपयोगी साबित नहीं होगा. वह मानते थे कि देश में पांच फीसदी से भी कम आबादी वाला सम्भ्रांत तबका देश के लोकतंत्र को अगवा कर लेगा और बाकी 95 फीसदी लोगों को इसका लाभ नहीं मिलेगा.... संसदीय लायब्रेरी से यह संस्करण लिया गया है - कृष्ण कुमार दुबे, राष्ट्रीय संयोजक, राष्ट्रीय लोकमत केंद्र।
आजादी के बाद भारत को लोकतांत्रिक देश बनाने में बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की अहम भूमिका थी, क्योंकि संविधान निर्माण में उनकी बड़ी रोल था. वह संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के मुखिया थे. 26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकार किया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया. इसके बाद ही भारत गणतंत्र कहलाया. फिर भी संविधान को अपनाने के महज तीन साल बाद एक वक्त ऐसा आ गया, जब संसद में उन्होंने संविधान को जलाने की बात तक कह डाली. राज्यसभा में बहस के दौरान उठा मुद्दा दो सितंबर 1953 की बात है. राज्यसभा में बहस चल रही थी संविधान संशोधन को लेकर और बाबा साहब राज्यपाल की शक्तियां बढ़ाने के मुद्दे पर अड़े थे. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा पर भी वह अडिग थे. इस बहस के दौरान बाबा साहब ने कहा कि छोटे तबके के लोगों को हमेशा डर लगा रहता है कि बहुसंख्यक उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं. उन्होंने कहा था, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि संविधान मैंने बनाया है. मैं बताना चाहता हूं कि इसको जलाने वाला पहला इंसान भी मैं ही होऊंगा. यह किसी के लिए भी ठीक नहीं है. कई लोग इसे लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं पर यह भी याद रखना होगा कि एक ओर बहुसंख्यक हैं और दूसरी ओर अल्पसंख्यक. बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते हैं कि अल्पसंख्यकों को महत्व नहीं दें. ऐसा करने से लोकतंत्र को ही नुकसान होगा. दो साल बाद पूछा गया बयान का कारण इस बहस के दो साल बाद ही 19 मार्च 1955 को राज्यसभा में यह मुद्दा तब फिर उठा, जब संविधान में चौथे संशोधन से जुड़े विधेयक पर चर्चा हो रही थी. सदन की चर्चा में हिस्सा लेने पहुंचे बाबा साहब से पंजाब से सांसद डॉ. अनूप सिंह ने सवाल पूछा था कि पिछली बार आखिर उन्होंने यह बयान क्यों दिया कि वह पहले इंसान होंगे जो संविधान को जलाएंगे. बाबा साहब ने तब बेबाकी से कहा कि पिछली बार जल्दबाजी में पूरा जवाब नहीं दे पाए थे. उन्होंने कहा, मैंने यह एकदम सोच-समझकर कहा था कि संविधान को जला देना चाहता हूं. डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि हम लोग मंदिर इसलिए बनाते हैं, जिससे भगवान आकर उसमें रहें. अगर भगवान से पहले ही दानव आकर रहने लगें तो मंदिर को नष्ट करने के सिवा और रास्ता ही क्या बचेगा. कोई यह सोचकर तो मंदिर बनाता नहीं है कि उसमें असुर रहने लगें. सब चाहते हैं कि मंदिर में देवों का निवास हो. यही कारण है कि संविधान जलाने की बात कही थी. अल्पसंख्यकों को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते बाबा साहब के इस जवाब पर एक सांसद ने कहा था कि मंदिर को ही नष्ट करने के बजाय आखिर दानव को समाप्त करने की बात क्यों नहीं करनी चाहिए. इस पर डॉ. आंबेडकर ने जवाब दिया कि हम ऐसा नहीं कर सकते. हमारे पास इतनी ताकत नहीं है. हमेशा असुरों ने देवों को हराया. अमृत उन्हीं के पास था, जिसे लेकर देवों को भागना पड़ा था. तब बाबा साहब ने कहा था कि संविधान को अगर हमें आगे लेकर जाना है तो एक बात का ध्यान रखना होगा कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों हैं और अल्पसंख्यकों को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. दरअसल, बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर उस वक्त संविधान के कई प्रावधानों में संशोधनों से काफी नाराज थे. उनका मानना था कि कोई भी संविधान कितना भी अच्छा क्यों नहीं हो, जब तक इसे ढंग से लागू नहीं किया जाएगा तो उपयोगी साबित नहीं होगा. वह मानते थे कि देश में पांच फीसदी से भी कम आबादी वाला सम्भ्रांत तबका देश के लोकतंत्र को अगवा कर लेगा और बाकी 95 फीसदी लोगों को इसका लाभ नहीं मिलेगा.... संसदीय लायब्रेरी से यह संस्करण लिया गया है - कृष्ण कुमार दुबे, राष्ट्रीय संयोजक, राष्ट्रीय लोकमत केंद्र।
- भारतीय संविधान दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। परमजीत सिंह निमेश। ग्रेटर नोएडा। 2013101
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