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मासूम बच्ची के साथ विवाहिता पहुंची पुलिस अधीक्षक कार्यालय, ससुराल पक्ष पर प्रताड़ित करने का लगाया आरोप
Pankaj Gupta
मासूम बच्ची के साथ विवाहिता पहुंची पुलिस अधीक्षक कार्यालय, ससुराल पक्ष पर प्रताड़ित करने का लगाया आरोप
- SU।करनाMadhya Pradeshbetul ka4 hrs ago
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- स्वतंत्रता आंदोलन का टर्निग प्वाइंट काकोरी कांड ( 100 वीं वर्षगांठ पर विशेष ) - जिसने देश में क्रांतिकारियों के प्रति जनता का नजरिया बदल दिया था - ************************************************* 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी कांड का मुकदमा 10 महीने तक चला था जिसमें रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह खां को फांसी दी गई थी , भारत के स्वाधीनता आंदोलन में काकोरी कांड की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन इसके बारे में बहुत ज्यादा जिक्र सुनने को नहीं मिलता. इसकी वजह यह है कि इतिहासकारों ने काकोरी कांड को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं दी. लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि काकोरी कांड ही वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा था और वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे थे , ‘1857 की क्रांति के बाद उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चापेकर बंधुओं द्वारा आर्यस्ट व रैंड की हत्या के साथ सैन्यवादी राष्ट्रवाद का जो दौर प्रारंभ हुआ, वह भारत के राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गांधी के आगमन तक निर्विरोध जारी रहा. लेकिन फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, तब भारत के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था’. 1922 में जब देश में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, उसी साल फरवरी में ‘चौरा-चौरी कांड’ हुआ. गोरखपुर जिले के चौरा-चौरी में भड़के हुए कुछ आंदोलकारियों ने एक थाने को घेरकर आग लगा दी थी जिसमें 22-23 पुलिसकर्मी जलकर मर गए थे. इस हिंसक घटना से दुखी होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया था, जिससे पूरे देश में जबरदस्त निराशा का माहौल छा गया था. आजादी के इतिहास में असहयोग आंदोलन के बाद काकोरी कांड को एक बहुत महत्वपूर्ण घटना के तौर पर देखा जा सकता है. क्योंकि इसके बाद आम जनता अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की तरफ और भी ज्यादा उम्मीद से देखने लगी थी. नौ अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती डाली थी. इसी घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है. क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके. काकोरी ट्रेन डकैती में खजाना लूटने वाले क्रांतिकारी देश के विख्यात क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ (एचआरए) के सदस्य थे. एचआरए की स्थापना 1923 में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने की थी. इस क्रांतिकारी पार्टी के लोग अपने कामों को अंजाम देने के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से डाके डालते थे. इन डकैतियों में धन कम मिलता था और निर्दोष व्यक्ति मारे जाते थे. इस कारण सरकार क्रांतिकारियों को चोर-डाकू कहकर बदनाम करती थी. धीरे-धीरे क्रांतिकारियों ने अपनी लूट की रणनीति बदली और सरकारी खजानों को लूटने की योजना बनाई. काकोरी ट्रेन की डकैती इसी दिशा में क्रांतिकारियों का पहला बड़ा प्रयास था.बताते हैं कि काकोरी षडयंत्र के संबंध में जब एचआरए दल की बैठक हुई तो अशफाक उल्लाह खां ने ट्रेन डकैती का विरोध करते हुए कहा, ‘इस डकैती से हम सरकार को चुनौती तो अवश्य दे देंगे, परंतु यहीं से पार्टी का अंत प्रारंभ हो जाएगा. क्योंकि दल इतना सुसंगठित और दृढ़ नहीं है इसलिए अभी सरकार से सीधा मोर्चा लेना ठीक नहीं होगा.’ लेकिन अंततः काकोरी में ट्रेन में डकैती डालने की योजना बहुमत से पास हो गई. इस ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे. इस लूट का विवरण देते हुए लखनऊ के पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने 11 अगस्त 1925 को कहा, ‘डकैत (क्रांतिकारी) खाकी कमीज और हाफ पैंट पहने हुए थे. उनकी संख्या 25 थी. यह सब पढ़े-लिखे लग रहे थे. पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, वे वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रांतिकारी घटनाओं में प्रयुक्त किए गए थे.’इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई. हालांकि काकोरी ट्रेन डकैती में 10 आदमी ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया. अंग्रेजों की इस धरपकड़ से प्रांत में काफी हलचल मच गई. जवाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि बड़े-बड़े लोगों ने जेल में क्रांतिकारियों से मुलाकात की और मुकदमा लड़ने में दिलचस्पी दिखाई. वे चाहते थे कि उनका मुकदमा सुप्रसिद्ध वकील गोविंद वल्लभ पंत लडे़ं. लेकिन उनकी फीस ज्यादा होने के कारण अंततः यह मुकदमा कलकत्ता के बीके चौधरी ने लड़ा. काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला (आजकल इस भवन में लखनऊ का प्रधान डाकघर है.). इस पर सरकार का 10 लाख रुपये खर्च हुआ. छह अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ जिसमें जज हेमिल्टन ने धारा 121अ, 120ब, और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजाएं सुनाईं. इस मुकदमे में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई गई. शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालेपानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई. योगेशचंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविन्द चरणकर, राजकुमार सिंह, रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की सजा हुई. विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य को सात और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी और प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई. फांसी की सजा की खबर सुनते ही जनता आंदोलन पर उतारू हो गई. अदालत के फैसले के खिलाफ शचीन्द्रनाथ सान्याल और भूपेन्द्रनाथ सान्याल के अलावा सभी ने लखनऊ चीफ कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. 17 दिसंबर 1927 को सबसे पहले गांडा जेल में राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फांसी दी गई. फांसी के कुछ दिनों पहले एक पत्र में उन्होंने अपने मित्र को लिखा था, ‘मालूम होता है कि देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यता है. मृत्यु क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं. यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूं, हमारी मृत्यु व्यर्थ नहीं जाएगी, सबको अंतिम नमस्ते.’ 19 दिसंबर, 1927 को पं. रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई. उन्होंने अपनी माता को एक पत्र लिखकर देशवासियों के नाम संदेश भेजा और फांसी के तख्ते की ओर जाते हुए जोर से ‘भारत माता’ और ‘वंदेमातम्’ की जयकार करते रहे. चलते समय उन्होंने कहा - मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे, बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे. जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे तेरा हो जिक्र या, तेरी ही जुस्तजू रहे. फांसी के दरवाजे पर पहुंचकर बिस्मिल ने कहा, ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूं.’ और फिर फांसी के तख्ते पर खड़े होकर प्रार्थना और मंत्र का जाप करके वे फंदे पर झूल गए. गोरखपुर की जनता ने उनके शव को लेकर आदर के साथ शहर में घुमाया. उनकी अर्थी पर इत्र और फूल बरसाए. काकोरी कांड के तीसरे शहीद थे, ठाकुर रोशन सिंह जिन्हें इलाहाबाद में फांसी दी गई. उन्होंने अपने मित्र को पत्र लिखते हुए कहा था, ‘हमारे शास्त्रों में लिखा है, जो आदमी धर्मयुद्ध में प्राण देता है, उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वालों की.’ अशफाक उल्ला खां काकोरी कांड के चौथे शहीद थे. उन्हें फैजाबाद में फांसी दी गई. वे बहुत खुशी के साथ कुरान शरीफ का बस्ता कंधे पर लटकाए हाजियों की भांति ‘लवेक’ कहते और कलाम पढ़ते फांसी के तख्ते पर गए. तख्ते का उन्होंने चुंबन किया और उपस्थित जनता से कहा, ‘मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगे, मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया, वह गलत है. खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा.’ और फंदे पर झूल गए. उनका अंतिम गीत था - तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेदाद से चल दिए सुए अदम जिंदाने फैजाबाद से 19 दिसंबर को उनका पार्थिव शरीर मालगाड़ी से शाहजहांपुर ले जाते समय गाड़ी लखनऊ बालामऊ स्टेशन पर रुकी. जहां पर एक साहब सूट-बूट में गाड़ी के अंदर आए और कहा, ‘हम शहीद-ए-आजम को देखना चाहते हैं.’ उन्होंने पार्थिव शरीर के दर्शन किए और कहा, ‘कफन बंद कर दो, मैं अभी आता हूं.’ यह साहब कोई और नहीं चन्द्रशेखर आजाद थे. काकोरी कांड में अंग्रेजों ने चन्द्रशेखर आजाद को भी बहुत ढूंढ़ा. वे हुलिया बदल-बदल कर बहुत समय तक अंग्रेजों को धोखा देने में सफल होते रहे. अंततः 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों का सामना करते हुए वे अपनी ही गोली से शहीद हो गए. जेल के अंदर ये सभी क्रांतिकारी मेरा रंग दे बसंती चोला गीत अधिकतर गाया करते थे , दरअसल गीत की तुकबंदी 1927 में मुख्य रूप से शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां व उनके कई अन्य साथियों ने जेल में की थी। सभी काकोरी-कांड के कारण कारागार में थे। बसंत का मौसम था। उसी समय एक क्रांतिकारी साथी ने बिस्मिल से 'बसंत' पर कुछ लिखने को कहा और बिस्मिल ने इस रचना को जन्म दिया। इसके संशोधन में अन्य साथियों ने भी साथ दिया। मूल रचना का जो रूप निम्नलिखित रचना के रूप में सामने आता है, वह 1927 में इन क्रांतिकारियों द्वारा रचा गया था :- रंग दे बसन्ती चोला 'मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में गांधी जी ने, नमक पर धावा बोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में वीर शिवा ने, मां का बन्धन खोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में पेशावर में, पठानों ने सीना खोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में बिस्मिल अशफाक ने सरकारी खजाना खोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में वीर मदन ने गवर्नमेंट पर धावा बोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में पद्मकान्त ने मार्डन पर धावा बोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला।' उपरोक्त गीत, 'भगत सिंह का अंतिम गान' शीर्षक के रूप में 'साप्ताहिक अभ्युदय' के 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था। भगत सिंह ने अंतिम समय में यह गीत गाया कि नहीं? इसके साक्ष्य उपलब्ध नहीं किंतु निःसंदेह यह गीत भगत सिंह को पसंद था और वे जेल में किताबें पढ़ते-पढ़ते कई बार इस गीत को गाने लगते और आसपास के अन्य बंदी क्रांतिकारी भी इस गीत को गाते थे। यह गीत क्रांतिकारियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय था। बाद में कुछ अन्य प्रकाशनों ने मूल गीत में कुछ और भी जोड़कर, इसे इस तरह भी प्रस्तुत किया है :- रंग दे बसन्ती चोला मेरा रंग दे बसन्ती चोला माई रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में गांधी जी ने नमक पर धावा बोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में बीर सिवा ने मां का बन्धन खोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में पेशावर में पठानों ने सीना खोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में बिस्मिल असफाक ने सरकारी खजाना खोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में वीर मदन ने गौरमेन्ट पर धावा बोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग को गुरु गोविन्द ने समझा परम अमोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला। इसी रंग में पद्मकान्त ने मार्डन पर धावा बोला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला।' Narendra Modi MYogiAdityanath Amit Shah Anurag Vishwanath Sharma1