logo
Shuru
Apke Nagar Ki App…
  • Latest News
  • News
  • Politics
  • Elections
  • Viral
  • Astrology
  • Horoscope in Hindi
  • Horoscope in English
  • Latest Political News
logo
Shuru
Apke Nagar Ki App…

*उत्पादन का नहीं, बचाव का युद्ध — कठुआ में फसल की हर बालि वन्य जानवरों के निशाने पर* -अनिल अनूप नीलगाय, बंदर और जंगली सूअरों के बढ़ते हमलों ने खेती को घाटे का सौदा बना दिया, किसान रात भर पहरा देकर भी अपनी मेहनत बचा नहीं पा रहे स्वर्ग की वादियों की यह कड़वी हकीकत है कि जम्मू के कठुआ और आसपास के इलाकों में किसानों का सबसे बड़ा दुश्मन अब मौसम नहीं, बल्कि नीलगाय, बंदर और दूसरे जंगली जानवर बन गए हैं। खेतों की मेड़ पर खड़े किसान दूर से हरी फसल को लहलहाते नहीं, बल्कि इस भय से देखते हैं कि रात के अँधेरे या दिन की हलचल में कब जानवरों का झुंड आएगा और पूरा सीजन मिट्टी में मिला जाएगा। यह सिर्फ एक भावुक बयान नहीं, बल्कि आँकड़ों और अनुभवों से बनती हुई एक सख़्त सच्चाई है। कठुआ की खेती : काग़ज़ पर हरा, ज़मीन पर असुरक्षित कठुआ ज़िले में मुख्य फसलें गेहूँ, धान और मक्का हैं। कृषि विभाग के आँकड़ों के अनुसार ज़िले में कृषि योग्य भूमि लगभग 0.45 लाख हेक्टेयर है और गेहूँ–धान–मक्का मिलकर ज़्यादातर क्षेत्र पर कब्ज़ा किए हुए हैं। कभी इस क्षेत्र की पहचान ऊँची फसल-गहनता (cropping intensity) से होती थी – यानी एक ही खेत में साल में दो–दो फसलें। एक अध्ययन में दिखा कि कठुआ में कुल शुद्ध बुआई क्षेत्र के मुकाबले फसल-गहनता 200% से भी ऊपर दर्ज की गई थी, यानी ज़मीन कम, पर मेहनत और उत्पादन ज़्यादा। लेकिन अब तस्वीर उलट रही है। कई गाँवों में बुआई का औसत घट रहा है, खेत आंशिक या पूरी तरह खाली छोड़े जा रहे हैं, क्योंकि किसान जानते हैं – जितना बोओगे, उतना ही नीलगाय और बंदर खा जाएँगे। जंगली जानवरों का बढ़ता दबाव : डर की एक अदृश्य सरहद जम्मू संभाग के कई जिलों में बंदरों के कारण हर साल लगभग 15 हज़ार हेक्टेयर कृषि भूमि पर फसल का नुकसान दर्ज किया गया है। एक अन्य अनुमान बताता है कि लगभग 6,757 हेक्टेयर क्षेत्र बंदरों के हमलों से प्रभावित है, जिसमें से 2,180 हेक्टेयर जमीन किसानों ने सीधे-सीधे बंजर छोड़ दी, जबकि 5,477 हेक्टेयर में खड़ी फसल नष्ट हुई। ये आँकड़े सीधे-सीधे कठुआ का नहीं, पूरे जम्मू क्षेत्र का चित्र खींचते हैं; लेकिन कठुआ की भौगोलिक स्थिति—मैदानी, तराई और पहाड़ी हिस्सों की मिश्रित बनावट, जंगलों और वन्य मार्गों की नज़दीकी—उसे इस संकट के केंद्र में ला खड़ा करती है। नीलगायों के झुंड, बंदरों के टोले, जंगली सूअर और कभी-कभार हिरन आदि यहां की फसल के स्थायी ‘अनचाहे हिस्सेदार’ बन चुके हैं। नीलगाय और बंदरों की भूख बनाम किसान की जीविका देशभर के कई अध्ययनों में यह सामने आया है कि मक्का, गेहूँ, चना, सरसों और सब्ज़ियाँ नीलगाय व बंदरों का सबसे प्रिय भोजन हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि मक्का की फसल पर जंगली जानवरों, विशेषकर नीलगाय और बंदरों का हमला सबसे ज़्यादा होता है और उसे किसानों ने ‘सर्वाधिक असुरक्षित फसल’ की श्रेणी में रखा। कठुआ में भी यही पैटर्न दिखता है, मक्का और सब्ज़ियाँ रात के हमलों में पहली निशाना, धान की नर्सरी और कच्ची बालियाँ नीलगायों के पैरों तले, गेहूँ की दूधिया बालियाँ बंदरों के लिए जैसे तैयार नाश्ता। एक ही रात में दस–बारह नीलगायों का झुंड पूरे खेत को पथरीली ज़मीन जैसा बना देता है। बंदरों के टोले पौधे को जड़ से उखाड़ देते हैं, फसल सिर्फ खाकर नहीं, बल्कि तोड़–मरोड़कर भी बरबाद करते हैं। किसान के लिए यह नुकसान दोहरी मार है – उत्पादन घटता है, और अगले सीजन के लिए मनोबल भी टूटता जाता है। आँकड़ों की भाषा में दर्द : बोआई घटने का गणित कठुआ ज़िले की फसल पैटर्न पर 2008 से 2017 तक किए गए एक अध्ययन में साफ दिखा कि खाद्यान्न फसलों के क्षेत्र में धीरे-धीरे गिरावट हुई और कुछ किसानों ने नकदी फसलों या कम जोखिम वाली फसलों की ओर रुख किया। इसे जंगली जानवरों के आँकड़ों के साथ रखकर देखिए, एक तरफ बंदरों के कारण हर साल हज़ारों हेक्टेयर फसल प्रभावित होने का अनुमान, दूसरी तरफ वही क्षेत्र, जहां किसान अब खेत में बीज डालने से पहले ही हार मानने लगे हैं। जब किसी इलाके की नेट कुल बोई गई ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा या तो खाली छोड़ दिया जाए, या कम लाभ लेकिन अपेक्षाकृत सुरक्षित समझी जाने वाली फसलों की ओर मोड़ दिया जाए, तो इसका अर्थ सिर्फ कृषि उत्पादन में कमी नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर चोट होता है। खेत से चौपाल तक : डर का फैलता हुआ दायरा कठुआ और आसपास के गाँवों में अब रात का अर्थ है फसलों की रखवाली। किसान घर और खेत के बीच भागते रहते हैं, टॉर्च, पटाखे, खाली ड्रम, टीन के डिब्बे—सब आवाज़ पैदा करने के औज़ार बन चुके हैं। जहाँ पहले रात को चौपाल में कहानियाँ सुनाई जाती थीं, आज वहाँ चर्चा होती है— “कल रात कितनी नीलगाय आई थीं?” “ऊपर वाले टुकड़े में बंदरों ने कितना उखाड़ दिया?” “इस बार गेहूँ बोएँ या सीधे चारा घास ही डाल दें?” जिन इलाकों में हमलों की आवृत्ति ज़्यादा है, वहाँ किसानों ने सचमुच गेहूँ–धान की जगह कम नुकसान वाली या ‘जानवरों के लिए कम आकर्षक’ फसलें लगानी शुरू कर दी हैं – जैसे कुछ नकदी फसलें, औषधीय पौधे, फूल या घास। जम्मू क्षेत्र में बंदरों के बढ़ते हमलों के चलते कई किसानों ने पारंपरिक फसलों की जगह एलोवेरा, अदरक, लहसुन, हल्दी और सुगंधित पौधों की खेती को अपनाना शुरू किया है, क्योंकि ये फसलें बंदर कम नुकसान पहुंचाते हैं। यह बदलाव मजबूरी से जन्मा है, योजना से नहीं। आर्थिक तुलना : खेत के घाटे से शहर की ओर पलायन अगर हम एक साधारण गणित लगाएँ, मान लीजिए एक हेक्टेयर गेहूँ या धान से सामान्य स्थिति में किसान को 40–50 हज़ार रुपये का सकल उत्पादन मिलता है (स्थानीय उपज और MSP/बाज़ार दर के हिसाब से) और जंगली जानवरों के कारण 30–40% तक नुक़सान होना अब ‘अपवाद’ नहीं, बल्कि ‘नियम’ बन चुका हो, तो हर सीजन किसान की जेब से लगभग 12–20 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर की सीधी कटौती हो रही है। इसमें बीज, खाद, मज़दूरी, सिंचाई और रात-रात भर फसल की रखवाली के श्रम की अलग कीमत है, जो सरकारी आँकड़ों में दर्ज ही नहीं होती। जब किसी परिवार के पास दो–तीन हेक्टेयर से कम जमीन हो—जैसा कि कठुआ में अधिकांश जोतें एक हेक्टेयर से छोटी हैं—तो इस स्तर का नुकसान कई वर्षों तक झेलना व्यावहारिक नहीं। परिणाम यह होता है कि युवा पीढ़ी शहरों की तरफ रोजगार के लिए निकलती है, और खेत या तो बूढ़े माता–पिता पर छोड़ दिए जाते हैं, या धीरे-धीरे बंजर और झाड़ीदार ज़मीन में बदलते जाते हैं। नीति की खामोशी : फसल का दर्द, फाइलों की भाषा में ‘प्राकृतिक क्षति’ जम्मू–कश्मीर में मानव–वन्यजीव संघर्ष के मामलों में सरकार ने मानव क्षति के लिए मुआवज़े की व्यवस्था की है – जैसे जानवरों के हमले में किसी की मृत्यु या गंभीर घायल होने पर लाखों रुपये तक की ex-gratia राहत। लेकिन जब बात फसल की आती है, तो स्थिति बहुत अस्पष्ट रही है; अक्सर ये नुकसान ‘प्राकृतिक जोखिम’ या ‘अनकवर्ड लॉस’ के दायरे में डाल दिए जाते हैं। कई रिपोर्टों में यह स्वीकार किया गया कि वन विभाग के पास फसलों या पशुधन के नियमित नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए स्पष्ट और पर्याप्त नीति नहीं थी; प्राथमिक फोकस जानवरों की सुरक्षा और मानव जान-माल की बड़ी घटनाओं पर रहा। दूसरे शब्दों में, अगर बंदर या नीलगाय आपके खेत का आधा हिस्सा खा जाएँ, तो कागज़ पर यह ‘जोखिम’ है; अगर वही जानवर किसी इंसान को घायल कर दें, तो वह ‘दुर्घटना’ और ‘क्षतिपूर्ति योग्य मामला’ बन जाता है। किसान की नज़र से दोनों ही जीवन और आजीविका के संकट हैं। नई उम्मीद : फसल बीमा में जंगली जानवरों की घुसपैठ राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण बदलाव हाल ही में आया है। केंद्र सरकार ने निर्णय लिया है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) के तहत जंगली जानवरों के हमलों से होने वाले फसल नुकसान को भी शामिल किया जाएगा, और यह प्रावधान 2026 की खरीफ सीजन से लागू करने की बात कही गई है। इसमें खास तौर पर हाथी, जंगली सूअर, नीलगाय, हिरन और बंदरों का उल्लेख है। इसका अर्थ यह है कि— कठुआ जैसे सीमांत ज़िलों के किसानों को भविष्य में बीमा के माध्यम से कुछ राहत मिल सकती है, लेकिन अभी, यानी 2025 तक, जो नुकसान हो रहा है, वह लगभग पूरी तरह किसान की अपनी जेब और सहनशीलता पर ही टिका है। यह नीति परिवर्तन उम्मीद ज़रूर जगाता है, लेकिन ज़मीन पर इसे लागू करने की चुनौती अलग है – सर्वेक्षण, आकलन, प्रीमियम, दावा निपटान और स्थानीय स्तर पर जागरूकता। अगर ये कड़ियाँ समय पर नहीं जुड़ीं, तो कागज़ पर बना ‘सुरक्षा कवच’ खेत तक पहुँचते-पहुँचते छेदों से भरी चादर बन सकता है। तकनीकी उपाय बनाम ज़मीनी हक़ीक़त सरकार और वैज्ञानिक संस्थान इस समस्या से निपटने के लिए कई उपाय सुझा रहे हैं, सोलर फेंसिंग और सोलर रिपेलर : जम्मू–कश्मीर में बंदरों के आतंक से निपटने के लिए सोलर फेंसिंग और रिपेलर जैसे उपायों पर ज़ोर दिया जा रहा है। ध्वनि आधारित ‘एग्री–कैनन’ और अन्य उपकरण जो समय-समय पर तेज़ आवाज़ कर जानवरों को दूर रखें। फसल विविधीकरण – ऐसी फसलों की ओर शिफ्ट जो बंदरों/नीलगायों को कम पसंद हों। लेकिन कठुआ के औसत छोटे किसान के सामने इन तकनीकों की अपनी बाधाएँ हैं— 1. सोलर फेंसिंग की शुरुआती लगत बहुत अधिक है; छोटी जोत वाले किसान के लिए अकेले यह निवेश करना संभव नहीं। 2. एग्री–कैनन या अन्य उपकरणों की खरीद, रखरखाव और तकनीकी समझ अपने आप में एक मुश्किल काम है। 3. फसल विविधीकरण का मतलब है बाज़ार की नई अनिश्चितताएँ – एलोवेरा, औषधीय पौधों या फूलों की फसल तो लगा दें, पर उन्हें सही दाम, सही समय और सही ख़रीदार मिले, इसकी कोई गारंटी नहीं। इसलिए तकनीकी समाधान तभी सार्थक होंगे, जब उन्हें सामुदायिक स्तर पर, सहकारी ढाँचे के साथ जोड़ा जाए—जैसे पूरे गाँव के लिए साझा फेंसिंग, सामूहिक गश्त, साझा उपकरण, और इनके लिए सरकारी अनुदान या सब्सिडी। तुलनात्मक दृष्टि : जंगल बचाना है या खेती? यह सवाल अक्सर गाँव की बैठकों में उभरता है – “जानवर भी भगवान की रचना हैं, उन्हें भी जीने का अधिकार है, लेकिन हमारी फसल और बच्चों का अधिकार कहाँ जाए?” अगर हम तुलना करें— वन्यजीव संरक्षण की नीति : जानवरों की आबादी, उनके आवास, वन क्षेत्र की रक्षा, शिकार पर प्रतिबंध – सबके लिए ठोस कानूनी आधार मौजूद है। किसान की फसल सुरक्षा : बिखरी हुई योजनाएँ, अस्पष्ट मुआवज़ा नीति, बीमा में देर से शामिल होने वाला जोखिम, और स्थानीय स्तर पर व्यवस्था का अभाव। पर्यावरणीय दृष्टि से भी यह संतुलन जरूरी है। जंगलों के सिकुड़ने, खाद्य श्रृंखला के बिगड़ने और मानवीय दख़ल के कारण जानवर खेतों की तरफ आए हैं। समाधान यह नहीं हो सकता कि जानवरों का ‘नाश’ कर दिया जाए; समाधान यह है कि— जंगलों और वन्य गलियारों की वैज्ञानिक योजना हो, फसलों के चारों तरफ सुरक्षित ज़ोन बनाए जाएँ और जहाँ आबादी अत्यधिक बढ़ चुकी हो, वहाँ मानवीय और वैज्ञानिक तरीक़ों से प्रजनन नियंत्रण (जैसे बाँझीकरण आदि) पर गंभीरता से काम किया जाए। कठुआ के लिए आगे की राह : नीति, पंचायत और किसान की साझी लड़ाई कठुआ और आसपास के इलाकों के लिए कुछ ठोस कदमों की ज़रूरत है, जो ‘विचार’ नहीं, ‘कार्रवाई’ के रूप में दिखें— 1. गाँव–स्तर पर फसल सुरक्षा योजना हर पंचायत स्तर पर ‘वन्यजीव–फसल सुरक्षा समिति’ बने, सामुदायिक गश्त, साझा फेंसिंग, सामूहिक उपकरण (एग्री–कैनन, सर्चलाइट, सायरन) का प्रबंध और इन पर 70–80% तक सरकारी अनुदान। 2. तेज़ और पारदर्शी क्षतिपूर्ति व्यवस्था फसल नुकसान का तुरंत डिजिटल सर्वे, मोबाइल ऐप या लोकल केंद्र के माध्यम से फोटो–आधारित दावा और 30 दिन के भीतर मुआवज़ा भुगतान की कानूनी बाध्यता – जैसा कि कुछ राज्यों में वन्यजीव–नुकसान के लिए अलग योजनाओं में प्रयास हो रहे हैं। 3. फसल बीमा में सक्रिय सहभागिता PMFBY के तहत जंगली जानवरों से नुकसान को कवर किए जाने की घोषणा को ज़मीन पर उतारने के लिए विशेष अभियान, किसानों को प्रीमियम की जानकारी, दावा प्रक्रिया और दस्तावेज़ीकरण में मदद। 4. अनुसंधान–आधारित फसल विविधीकरण कृषि विश्वविद्यालय और Krishi Vigyan Kendra (KVK) कठुआ मिलकर यह तय करें कि कौन–सी फसलें स्थानीय बाज़ार में मांग वाली हैं, और जिन्हें नीलगाय/बंदर कम नुकसान पहुँचाते हैं, उनके लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, प्रोसेसिंग यूनिट और मार्केट–लिंक बनाकर जोखिम को कम किया जाए। 5. युवा किसानों के लिए विशेष पैकेज जो किसान खेत छोड़कर शहर की तरफ जा रहे हैं, उन्हें वापस खेत में बने रहने के लिए विशेष प्रोत्साहन – जैसे सब्सिडी वाले उपकरण, ब्याज मुक्त ऋण, प्रशिक्षण और किसानों के लिए ‘फसल सुरक्षा fellowship’ जैसी योजनाएँ। स्वर्ग की वादियों को बचाने का अर्थ खेत बचाना भी है जम्मू–कश्मीर की सुंदरता को हम अक्सर बर्फ़ से ढकी चोटियों, बहती नदियों और देवदार के जंगलों में खोजते हैं। लेकिन इस सौंदर्य की जड़ें उन खेतों में भी हैं, जहाँ गेहूँ की बालियाँ हवा से बातें करती हैं, धान की खेतियाँ सूरज को आईना दिखाती हैं, और मक्का के पौधे बच्चों के कद के साथ बढ़ते जाते हैं। कठुआ और उसके आसपास के किसानों के सामने आज जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा है, वह सिर्फ इतना नहीं कि फसल बचाएँ कैसे, बल्कि यह भी कि खेत और जंगल दोनों को साथ–साथ कैसे बचाएँ। अगर नीलगाय, बंदर और अन्य जानवरों के कारण फसलें लगातार बर्बाद होती रहीं, और किसान बुआई से ही पीछे हटते गए, तो आने वाले वर्षों में यह इलाका आँकड़ों में चाहे जितना ‘कृषि–प्रधान’ दर्ज रहे, ज़मीन पर यह ‘अधकृषित’ और ‘असुरक्षित’ क्षेत्र बन जाएगा। समाधान किसी एक विभाग, एक योजना या एक सीजन से नहीं निकलेगा। यह लंबी लड़ाई है, नीति–निर्माताओं की मेज़ से लेकर गाँव की चौपाल तक, जंगल के किनारे खड़े वन रक्षक से लेकर खेत की मेड़ पर जागते किसान तक। स्वर्ग की वादियों में झांकती यह धरती तभी पूरी तरह खूबसूरत होगी, जब नीलगायों की छलाँग, बंदरों की उछलकूद और किसानों की फसल – तीनों अपने-अपने दायरे में सुरक्षित रह सकें। अभी के हालात में सबसे ज़्यादा असुरक्षित किसान है; आने वाला समय इस असंतुलन को ठीक करने का आख़िरी मौका भी हो सकता है।

5 hrs ago
user_Samachar Darpan
Samachar Darpan
Ludhiana (West), Punjab•
5 hrs ago
8e33d082-d15b-4e26-8d70-ca1c61930562

*उत्पादन का नहीं, बचाव का युद्ध — कठुआ में फसल की हर बालि वन्य जानवरों के निशाने पर* -अनिल अनूप नीलगाय, बंदर और जंगली सूअरों के बढ़ते हमलों ने खेती को घाटे का सौदा बना दिया, किसान रात भर पहरा देकर भी अपनी मेहनत बचा नहीं पा रहे स्वर्ग की वादियों की यह कड़वी हकीकत है कि जम्मू के कठुआ और आसपास के इलाकों में किसानों का सबसे बड़ा दुश्मन अब मौसम नहीं, बल्कि नीलगाय, बंदर और दूसरे जंगली जानवर बन गए हैं। खेतों की मेड़ पर खड़े किसान दूर से हरी फसल को लहलहाते नहीं, बल्कि इस भय से देखते हैं कि रात के अँधेरे या दिन की हलचल में कब जानवरों का झुंड आएगा और पूरा सीजन मिट्टी में मिला जाएगा। यह सिर्फ एक भावुक बयान नहीं, बल्कि आँकड़ों और अनुभवों से बनती हुई एक सख़्त सच्चाई है। कठुआ की खेती : काग़ज़ पर हरा, ज़मीन पर असुरक्षित कठुआ ज़िले में मुख्य फसलें गेहूँ, धान और मक्का हैं। कृषि विभाग के आँकड़ों के अनुसार ज़िले में कृषि योग्य भूमि लगभग 0.45 लाख हेक्टेयर है और गेहूँ–धान–मक्का मिलकर ज़्यादातर क्षेत्र पर कब्ज़ा किए हुए हैं। कभी इस क्षेत्र की पहचान ऊँची फसल-गहनता (cropping intensity) से होती थी – यानी एक ही खेत में साल में दो–दो फसलें। एक अध्ययन में दिखा कि कठुआ में कुल शुद्ध बुआई क्षेत्र के मुकाबले फसल-गहनता 200% से भी ऊपर दर्ज की गई थी, यानी ज़मीन कम, पर मेहनत और उत्पादन ज़्यादा। लेकिन अब तस्वीर उलट रही है। कई गाँवों में बुआई का औसत घट रहा है, खेत आंशिक या पूरी तरह खाली छोड़े जा रहे हैं, क्योंकि किसान जानते हैं – जितना बोओगे, उतना ही नीलगाय और बंदर खा जाएँगे। जंगली जानवरों का बढ़ता दबाव : डर की एक अदृश्य सरहद जम्मू संभाग के कई जिलों में बंदरों के कारण हर साल लगभग 15 हज़ार हेक्टेयर कृषि भूमि पर फसल का नुकसान दर्ज किया गया है। एक अन्य अनुमान बताता है कि लगभग 6,757 हेक्टेयर क्षेत्र बंदरों के हमलों से प्रभावित है, जिसमें से 2,180 हेक्टेयर जमीन किसानों ने सीधे-सीधे बंजर छोड़ दी, जबकि 5,477 हेक्टेयर में खड़ी फसल नष्ट हुई। ये आँकड़े सीधे-सीधे कठुआ का नहीं, पूरे जम्मू क्षेत्र का चित्र खींचते हैं; लेकिन कठुआ की भौगोलिक स्थिति—मैदानी, तराई और पहाड़ी हिस्सों की मिश्रित बनावट, जंगलों और वन्य मार्गों की नज़दीकी—उसे इस संकट के केंद्र में ला खड़ा करती है। नीलगायों के झुंड, बंदरों के टोले, जंगली सूअर और कभी-कभार हिरन आदि यहां की फसल के स्थायी ‘अनचाहे हिस्सेदार’ बन चुके हैं। नीलगाय और बंदरों की भूख बनाम किसान की जीविका देशभर के कई अध्ययनों में यह सामने आया है कि मक्का, गेहूँ, चना, सरसों और सब्ज़ियाँ नीलगाय व बंदरों का सबसे प्रिय भोजन हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि मक्का की फसल पर जंगली जानवरों, विशेषकर नीलगाय और बंदरों का हमला सबसे ज़्यादा होता है और उसे किसानों ने ‘सर्वाधिक असुरक्षित फसल’ की श्रेणी में रखा। कठुआ में भी यही पैटर्न दिखता है, मक्का और सब्ज़ियाँ रात के हमलों में पहली निशाना, धान की नर्सरी और कच्ची बालियाँ नीलगायों के पैरों तले, गेहूँ की दूधिया बालियाँ बंदरों के लिए जैसे तैयार नाश्ता। एक ही रात में दस–बारह नीलगायों का झुंड पूरे खेत को पथरीली ज़मीन जैसा बना देता है। बंदरों के टोले पौधे को जड़ से उखाड़ देते हैं, फसल सिर्फ खाकर नहीं, बल्कि तोड़–मरोड़कर भी बरबाद करते हैं। किसान के लिए यह नुकसान दोहरी मार है – उत्पादन घटता है, और अगले सीजन के लिए मनोबल भी टूटता जाता है। आँकड़ों की भाषा में दर्द : बोआई घटने का गणित कठुआ ज़िले की फसल पैटर्न पर 2008 से 2017 तक किए गए एक अध्ययन में साफ दिखा कि खाद्यान्न फसलों के क्षेत्र में धीरे-धीरे गिरावट हुई और कुछ किसानों ने नकदी फसलों या कम जोखिम वाली फसलों की ओर रुख किया। इसे जंगली जानवरों के आँकड़ों के साथ रखकर देखिए, एक तरफ बंदरों के कारण हर साल हज़ारों हेक्टेयर फसल प्रभावित होने का अनुमान, दूसरी तरफ वही क्षेत्र, जहां किसान अब खेत में बीज डालने से पहले ही हार मानने लगे हैं। जब किसी इलाके की नेट कुल बोई गई ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा या तो खाली छोड़ दिया जाए, या कम लाभ लेकिन अपेक्षाकृत सुरक्षित समझी जाने वाली फसलों की ओर मोड़ दिया जाए, तो इसका अर्थ सिर्फ कृषि उत्पादन में कमी नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर चोट होता है। खेत से चौपाल तक : डर का फैलता हुआ दायरा कठुआ और आसपास के गाँवों में अब रात का अर्थ है फसलों की रखवाली। किसान घर और खेत के बीच भागते रहते हैं, टॉर्च, पटाखे, खाली ड्रम, टीन के डिब्बे—सब आवाज़ पैदा करने के औज़ार बन चुके हैं। जहाँ पहले रात को चौपाल में कहानियाँ सुनाई जाती थीं, आज वहाँ चर्चा होती है— “कल रात कितनी नीलगाय आई थीं?” “ऊपर वाले टुकड़े में बंदरों ने कितना उखाड़ दिया?” “इस बार गेहूँ बोएँ या सीधे चारा घास ही डाल दें?” जिन इलाकों में हमलों की आवृत्ति ज़्यादा है, वहाँ किसानों ने सचमुच गेहूँ–धान की जगह कम नुकसान वाली या ‘जानवरों के लिए कम आकर्षक’ फसलें लगानी शुरू कर दी हैं – जैसे कुछ नकदी फसलें, औषधीय पौधे, फूल या घास। जम्मू क्षेत्र में बंदरों के बढ़ते हमलों के चलते कई किसानों ने पारंपरिक फसलों की जगह एलोवेरा, अदरक, लहसुन, हल्दी और सुगंधित पौधों की खेती को अपनाना शुरू किया है, क्योंकि ये फसलें बंदर कम नुकसान पहुंचाते हैं। यह बदलाव मजबूरी से जन्मा है, योजना से नहीं। आर्थिक तुलना : खेत के घाटे से शहर की ओर पलायन अगर हम एक साधारण गणित लगाएँ, मान लीजिए एक हेक्टेयर गेहूँ या धान से सामान्य स्थिति में किसान को 40–50 हज़ार रुपये का सकल उत्पादन मिलता है (स्थानीय उपज और MSP/बाज़ार दर के हिसाब से) और जंगली जानवरों के कारण 30–40% तक नुक़सान होना अब ‘अपवाद’ नहीं, बल्कि ‘नियम’ बन चुका हो, तो हर सीजन किसान की जेब से लगभग 12–20 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर की सीधी कटौती हो रही है। इसमें बीज, खाद, मज़दूरी, सिंचाई और रात-रात भर फसल की रखवाली के श्रम की अलग कीमत है, जो सरकारी आँकड़ों में दर्ज ही नहीं होती। जब किसी परिवार के पास दो–तीन हेक्टेयर से कम जमीन हो—जैसा कि कठुआ में अधिकांश जोतें एक हेक्टेयर से छोटी हैं—तो इस स्तर का नुकसान कई वर्षों तक झेलना व्यावहारिक नहीं। परिणाम यह होता है कि युवा पीढ़ी शहरों की तरफ रोजगार के लिए निकलती है, और खेत या तो बूढ़े माता–पिता पर छोड़ दिए जाते हैं, या धीरे-धीरे बंजर और झाड़ीदार ज़मीन में बदलते जाते हैं। नीति की खामोशी : फसल का दर्द, फाइलों की भाषा में ‘प्राकृतिक क्षति’ जम्मू–कश्मीर में मानव–वन्यजीव संघर्ष के मामलों में सरकार ने मानव क्षति के लिए मुआवज़े की व्यवस्था की है – जैसे जानवरों के हमले में किसी की मृत्यु या गंभीर घायल होने पर लाखों रुपये तक की ex-gratia राहत। लेकिन जब बात फसल की आती है, तो स्थिति बहुत अस्पष्ट रही है; अक्सर ये नुकसान ‘प्राकृतिक जोखिम’ या ‘अनकवर्ड लॉस’ के दायरे में डाल दिए जाते हैं। कई रिपोर्टों में यह स्वीकार किया गया कि वन विभाग के पास फसलों या पशुधन के नियमित नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए स्पष्ट और पर्याप्त नीति नहीं थी; प्राथमिक फोकस जानवरों की सुरक्षा और मानव जान-माल की बड़ी घटनाओं पर रहा। दूसरे शब्दों में, अगर बंदर या नीलगाय आपके खेत का आधा हिस्सा खा जाएँ, तो कागज़ पर यह ‘जोखिम’ है; अगर वही जानवर किसी इंसान को घायल कर दें, तो वह ‘दुर्घटना’ और ‘क्षतिपूर्ति योग्य मामला’ बन जाता है। किसान की नज़र से दोनों ही जीवन और आजीविका के संकट हैं। नई उम्मीद : फसल बीमा में जंगली जानवरों की घुसपैठ राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण बदलाव हाल ही में आया है। केंद्र सरकार ने निर्णय लिया है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) के तहत जंगली जानवरों के हमलों से होने वाले फसल नुकसान को भी शामिल किया जाएगा, और यह प्रावधान 2026 की खरीफ सीजन से लागू करने की बात कही गई है। इसमें खास तौर पर हाथी, जंगली सूअर, नीलगाय, हिरन और बंदरों का उल्लेख है। इसका अर्थ यह है कि— कठुआ जैसे सीमांत ज़िलों के किसानों को भविष्य में बीमा के माध्यम से कुछ राहत मिल सकती है, लेकिन अभी, यानी 2025 तक, जो नुकसान हो रहा है, वह लगभग पूरी तरह किसान की अपनी जेब और सहनशीलता पर ही टिका है। यह नीति परिवर्तन उम्मीद ज़रूर जगाता है, लेकिन ज़मीन पर इसे लागू करने की चुनौती अलग है – सर्वेक्षण, आकलन, प्रीमियम, दावा निपटान और स्थानीय स्तर पर जागरूकता। अगर ये कड़ियाँ समय पर नहीं जुड़ीं, तो कागज़ पर बना ‘सुरक्षा कवच’ खेत तक पहुँचते-पहुँचते छेदों से भरी चादर बन सकता है। तकनीकी उपाय बनाम ज़मीनी हक़ीक़त सरकार और वैज्ञानिक संस्थान इस समस्या से निपटने के लिए कई उपाय सुझा रहे हैं, सोलर फेंसिंग और सोलर रिपेलर : जम्मू–कश्मीर में बंदरों के आतंक से निपटने के लिए सोलर फेंसिंग और रिपेलर जैसे उपायों पर ज़ोर दिया जा रहा है। ध्वनि आधारित ‘एग्री–कैनन’ और अन्य उपकरण जो समय-समय पर तेज़ आवाज़ कर जानवरों को दूर रखें। फसल विविधीकरण – ऐसी फसलों की ओर शिफ्ट जो बंदरों/नीलगायों को कम पसंद हों। लेकिन कठुआ के औसत छोटे किसान के सामने इन तकनीकों की अपनी बाधाएँ हैं— 1. सोलर फेंसिंग की शुरुआती लगत बहुत अधिक है; छोटी जोत वाले किसान के लिए अकेले यह निवेश करना संभव नहीं। 2. एग्री–कैनन या अन्य उपकरणों की खरीद, रखरखाव और तकनीकी समझ अपने आप में एक मुश्किल काम है। 3. फसल विविधीकरण का मतलब है बाज़ार की नई अनिश्चितताएँ – एलोवेरा, औषधीय पौधों या फूलों की फसल तो लगा दें, पर उन्हें सही दाम, सही समय और सही ख़रीदार मिले, इसकी कोई गारंटी नहीं। इसलिए तकनीकी समाधान तभी सार्थक होंगे, जब उन्हें सामुदायिक स्तर पर, सहकारी ढाँचे के साथ जोड़ा जाए—जैसे पूरे गाँव के लिए साझा फेंसिंग, सामूहिक गश्त, साझा उपकरण, और इनके लिए सरकारी अनुदान या सब्सिडी। तुलनात्मक दृष्टि : जंगल बचाना है या खेती? यह सवाल अक्सर गाँव की बैठकों में उभरता है – “जानवर भी भगवान की रचना हैं, उन्हें भी जीने का अधिकार है, लेकिन हमारी फसल और बच्चों का अधिकार कहाँ जाए?” अगर हम तुलना करें— वन्यजीव संरक्षण की नीति : जानवरों की आबादी, उनके आवास, वन क्षेत्र की रक्षा, शिकार पर प्रतिबंध – सबके लिए ठोस कानूनी आधार मौजूद है। किसान की फसल सुरक्षा : बिखरी हुई योजनाएँ, अस्पष्ट मुआवज़ा नीति, बीमा में देर से शामिल होने वाला जोखिम, और स्थानीय स्तर पर व्यवस्था का अभाव। पर्यावरणीय दृष्टि से भी यह संतुलन जरूरी है। जंगलों के सिकुड़ने, खाद्य श्रृंखला के बिगड़ने और मानवीय दख़ल के कारण जानवर खेतों की तरफ आए हैं। समाधान यह नहीं हो सकता कि जानवरों का ‘नाश’ कर दिया जाए; समाधान यह है कि— जंगलों और वन्य गलियारों की वैज्ञानिक योजना हो, फसलों के चारों तरफ सुरक्षित ज़ोन बनाए जाएँ और जहाँ आबादी अत्यधिक बढ़ चुकी हो, वहाँ मानवीय और वैज्ञानिक तरीक़ों से प्रजनन नियंत्रण (जैसे बाँझीकरण आदि) पर गंभीरता से काम किया जाए। कठुआ के लिए आगे की राह : नीति, पंचायत और किसान की साझी लड़ाई कठुआ और आसपास के इलाकों के लिए कुछ ठोस कदमों की ज़रूरत है, जो ‘विचार’ नहीं, ‘कार्रवाई’ के रूप में दिखें— 1. गाँव–स्तर पर फसल सुरक्षा योजना हर पंचायत स्तर पर ‘वन्यजीव–फसल सुरक्षा समिति’ बने, सामुदायिक गश्त, साझा फेंसिंग, सामूहिक उपकरण (एग्री–कैनन, सर्चलाइट, सायरन) का प्रबंध और इन पर 70–80% तक सरकारी अनुदान। 2. तेज़ और पारदर्शी क्षतिपूर्ति व्यवस्था फसल नुकसान का तुरंत डिजिटल सर्वे, मोबाइल ऐप या लोकल केंद्र के माध्यम से फोटो–आधारित दावा और 30 दिन के भीतर मुआवज़ा भुगतान की कानूनी बाध्यता – जैसा कि कुछ राज्यों में वन्यजीव–नुकसान के लिए अलग योजनाओं में प्रयास हो रहे हैं। 3. फसल बीमा में सक्रिय सहभागिता PMFBY के तहत जंगली जानवरों से नुकसान को कवर किए जाने की घोषणा को ज़मीन पर उतारने के लिए विशेष अभियान, किसानों को प्रीमियम की जानकारी, दावा प्रक्रिया और दस्तावेज़ीकरण में मदद। 4. अनुसंधान–आधारित फसल विविधीकरण कृषि विश्वविद्यालय और Krishi Vigyan Kendra (KVK) कठुआ मिलकर यह तय करें कि कौन–सी फसलें स्थानीय बाज़ार में मांग वाली हैं, और जिन्हें नीलगाय/बंदर कम नुकसान पहुँचाते हैं, उनके लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, प्रोसेसिंग यूनिट और मार्केट–लिंक बनाकर जोखिम को कम किया जाए। 5. युवा किसानों के लिए विशेष पैकेज जो किसान खेत छोड़कर शहर की तरफ जा रहे हैं, उन्हें वापस खेत में बने रहने के लिए विशेष प्रोत्साहन – जैसे सब्सिडी वाले उपकरण, ब्याज मुक्त ऋण, प्रशिक्षण और किसानों के लिए ‘फसल सुरक्षा fellowship’ जैसी योजनाएँ। स्वर्ग की वादियों को बचाने का अर्थ खेत बचाना भी है जम्मू–कश्मीर की सुंदरता को हम अक्सर बर्फ़ से ढकी चोटियों, बहती नदियों और देवदार के जंगलों में खोजते हैं। लेकिन इस सौंदर्य की जड़ें उन खेतों में भी हैं, जहाँ गेहूँ की बालियाँ हवा से बातें करती हैं, धान की खेतियाँ सूरज को आईना दिखाती हैं, और मक्का के पौधे बच्चों के कद के साथ बढ़ते जाते हैं। कठुआ और उसके आसपास के किसानों के सामने आज जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा है, वह सिर्फ इतना नहीं कि फसल बचाएँ कैसे, बल्कि यह भी कि खेत और जंगल दोनों को साथ–साथ कैसे बचाएँ। अगर नीलगाय, बंदर और अन्य जानवरों के कारण फसलें लगातार बर्बाद होती रहीं, और किसान बुआई से ही पीछे हटते गए, तो आने वाले वर्षों में यह इलाका आँकड़ों में चाहे जितना ‘कृषि–प्रधान’ दर्ज रहे, ज़मीन पर यह ‘अधकृषित’ और ‘असुरक्षित’ क्षेत्र बन जाएगा। समाधान किसी एक विभाग, एक योजना या एक सीजन से नहीं निकलेगा। यह लंबी लड़ाई है, नीति–निर्माताओं की मेज़ से लेकर गाँव की चौपाल तक, जंगल के किनारे खड़े वन रक्षक से लेकर खेत की मेड़ पर जागते किसान तक। स्वर्ग की वादियों में झांकती यह धरती तभी पूरी तरह खूबसूरत होगी, जब नीलगायों की छलाँग, बंदरों की उछलकूद और किसानों की फसल – तीनों अपने-अपने दायरे में सुरक्षित रह सकें। अभी के हालात में सबसे ज़्यादा असुरक्षित किसान है; आने वाला समय इस असंतुलन को ठीक करने का आख़िरी मौका भी हो सकता है।

More news from Punjab and nearby areas
  • Post by IndiaNews 9Live
    1
    Post by IndiaNews 9Live
    user_IndiaNews 9Live
    IndiaNews 9Live
    Journalist Ludhiana (East), Punjab•
    8 hrs ago
  • Trending Amritsar express near Ludhiana bypass very tasty and yummy chhole Puri with Achar salad 😋🙏 ek bar khaoge khate rah jaaoge
    1
    Trending Amritsar express near Ludhiana bypass very tasty and yummy chhole Puri with Achar salad 😋🙏 ek bar khaoge khate rah jaaoge
    user_Noorjahan_heart_broken
    Noorjahan_heart_broken
    Teacher Phagwara, Kapurthala•
    19 hrs ago
  • ਹਸਪਤਾਲ 'ਚ ਲਾਪਰਵਾਹੀ ਦਾ ਦੋਸ਼—34 ਦਿਨ ਦੀ ਜੰਗ ਹਾਰਿਆ ਮਰੀਜ਼, ਗੁੱ'ਸੇ 'ਚ ਪਰਿਵਾਰ ਨੇ ਸੜਕ ਨੂੰ ਕੀਤਾ ਜਾਮ | Punjab 24 News #SamralaNews #MachhiwaraRoad #HospitalNegligence #MedicalNegligence #PatientDeath #JusticeForSohanSingh #FamilyProtest #RoadBlock #KhannaNews #HealthCareIssue #PrivateHospital #ICU34Days #OperationNegligence #PunjabNews #BreakingNewsPunjab #MedicalCase #DSPAction #DemandForJustice #SamralaProtest #ActionAgainstDoctor #PUNJAB24NEWS
    1
    ਹਸਪਤਾਲ 'ਚ ਲਾਪਰਵਾਹੀ ਦਾ ਦੋਸ਼—34 ਦਿਨ ਦੀ ਜੰਗ ਹਾਰਿਆ ਮਰੀਜ਼, ਗੁੱ'ਸੇ 'ਚ ਪਰਿਵਾਰ ਨੇ ਸੜਕ ਨੂੰ ਕੀਤਾ ਜਾਮ   | Punjab 24 News
#SamralaNews
#MachhiwaraRoad
#HospitalNegligence
#MedicalNegligence
#PatientDeath
#JusticeForSohanSingh
#FamilyProtest
#RoadBlock
#KhannaNews
#HealthCareIssue
#PrivateHospital
#ICU34Days
#OperationNegligence
#PunjabNews
#BreakingNewsPunjab
#MedicalCase
#DSPAction
#DemandForJustice
#SamralaProtest
#ActionAgainstDoctor
#PUNJAB24NEWS
    user_Punjab 24 News
    Punjab 24 News
    News Publisher Khanna, Ludhiana•
    11 hrs ago
  • 28 साल की इस बिल्ली ने दुनिया का ध्यान खींच लिया है। गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के अनुसार, वह दुनिया की सबसे उम्रदराज़ जीवित बिल्ली बन गई है। उम्र इंसानी हिसाब से देखें तो करीब 150 साल के बराबर होती! इतनी लंबी उम्र ने वैज्ञानिकों और पालतू प्रेमियों दोनों को चौंका दिया है। लोग उसके देखभाल के रहस्य जानने को उत्सुक हैं।#ViralNews #AmazingFacts #RecordBreaker #OldestCat #TrendingNow
    1
    28 साल की इस बिल्ली ने दुनिया का ध्यान खींच लिया है। गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के अनुसार, वह दुनिया की सबसे उम्रदराज़ जीवित बिल्ली बन गई है। उम्र इंसानी हिसाब से देखें तो करीब 150 साल के बराबर होती! इतनी लंबी उम्र ने वैज्ञानिकों और पालतू प्रेमियों दोनों को चौंका दिया है। लोग उसके देखभाल के रहस्य जानने को उत्सुक हैं।#ViralNews #AmazingFacts #RecordBreaker #OldestCat #TrendingNow
    user_द संक्षेप
    द संक्षेप
    Media company Garhshankar, Hoshiarpur•
    17 hrs ago
  • ਖੰਨਾ ਦੇ ਪਿੰਡ ਦਹਿੜੂ ਨੇੜੇ ਵਾਪਰਿਆ ਭਿ.ਆ/ਨਕ ਸੜਕ ਹਾ.ਦਸਾ
    1
    ਖੰਨਾ ਦੇ ਪਿੰਡ ਦਹਿੜੂ ਨੇੜੇ ਵਾਪਰਿਆ ਭਿ.ਆ/ਨਕ ਸੜਕ ਹਾ.ਦਸਾ
    SU
    ਪੱਤਰਕਾਰ ਕੁਲਵਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਬੇਦੀ ਮੋਬਾਈਲ 77355-00003
    Khanna, Ludhiana•
    20 hrs ago
  • ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਅਕਾਲੀ ਦਲ ਨੇ ਜੈਂਤੀ ਮਾਜਰੀ ਜੋਨ ਤੋਂ ਸ੍ਰੀਮਤੀ ਗੁਰਦੀਪ ਕੌਰ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਉਮੀਦਵਾਰ ਬਣਾਇਆ,,, ਸੀਨੀਅਰ ਅਕਾਲੀ ਆਗੂ ਚੋਧਰੀ ਸਿਆਮ ਲਾਲ ਮਾਜਰੀਆਂ ਦੀ ਮੌਜੂਦਗੀ ਵਿੱਚ ਕੀਤੀ ਨਾਮਜ਼ਦਗੀ
    1
    ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਅਕਾਲੀ ਦਲ ਨੇ ਜੈਂਤੀ ਮਾਜਰੀ ਜੋਨ ਤੋਂ ਸ੍ਰੀਮਤੀ ਗੁਰਦੀਪ ਕੌਰ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਉਮੀਦਵਾਰ ਬਣਾਇਆ,,, ਸੀਨੀਅਰ ਅਕਾਲੀ ਆਗੂ ਚੋਧਰੀ ਸਿਆਮ ਲਾਲ ਮਾਜਰੀਆਂ ਦੀ ਮੌਜੂਦਗੀ ਵਿੱਚ ਕੀਤੀ ਨਾਮਜ਼ਦਗੀ
    user_Satnam Siswan
    Satnam Siswan
    Journalist Kharar, Sahibzada Ajit Singh Nagar•
    19 hrs ago
  • Post by IndiaNews 9Live
    1
    Post by IndiaNews 9Live
    user_IndiaNews 9Live
    IndiaNews 9Live
    Journalist Ludhiana (East), Punjab•
    8 hrs ago
View latest news on Shuru App
Download_Android
  • Terms & Conditions
  • Career
  • Privacy Policy
  • Blogs
Shuru, a product of Close App Private Limited.