
हींग यानी असफोटिडा एक बहुत ही सुगंधित मसाला है, जो भारतीय रसोई में खास जगह रखता है। चाहे दाल का तड़का हो या सब्जी की खुशबू, बिना हींग के स्वाद अधूरा लगता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत जो हींग का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, वह अब तक इसे पूरी तरह विदेशों से आयात करता रहा है? अब तस्वीर बदल रही है। भारत में हींग की खेती शुरू हो चुकी है और किसान इसे एक लाभदायक फसल के रूप में अपना रहे हैं। यहां पर हम आपको विस्तार में बता रहे हैं कि हींग की खेती (Hing ki Kheti) कैसे करें, इसकी जरूरतें क्या हैं और क्यों यह खेती आपके लिए कमाई का नया रास्ता बन सकती है?
हींग की खेती के बारे में जानने से पहले हम यह जान लेते हैं कि आखिरकार हींग क्या है? हींग एक सुगंधित राल (gum resin) होती है जो फेरुला हींग (Ferula asafoetida) नामक पौधे की जड़ से प्राप्त होती है। इसका इस्तेमाल भोजन में स्वाद और खुशबू के लिए, आयुर्वेदिक दवाओं में, पाचन, गैस, सूजन, कफ जैसी समस्याओं के इलाज में किया जाता है। अब तक भारत में हींग का आयात अफगानिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे देशों से होता था, लेकिन अब CSIR-आईएचबीटी (हिमालय जैवसंसाधन प्रौद्योगिकी संस्थान, पालमपुर) ने इसकी खेती को भारत में शुरू किया है।
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हींग की खेती (Hing ki Kheti) में सिंचाई बहुत कम मात्रा में की जाती है, क्योंकि यह पौधा शुष्क और ठंडी जलवायु में पनपता है। ज्यादा पानी इसकी जड़ों को सड़ा सकता है, इसलिए खेत में अच्छी जल निकासी बेहद जरूरी होती है। गर्मियों में लगभग 10 से 15 दिन में एक बार हल्की सिंचाई करना पर्याप्त होता है, जबकि सर्दियों में सिंचाई की जरूरत बहुत कम होती है या बिल्कुल नहीं रहती। बीज बोने और पौधे के स्थानांतरण के समय थोड़ी नमी जरूरी होती है। ज्यादा नमी से फंगल रोगों का खतरा होता है, इसलिए सिंचाई हमेशा सोच-समझकर करनी चाहिए।
हींग एक बहुवर्षीय (Perennial) फसल है, यानी इसे हर साल नहीं बोना पड़ता। एक बार पौधा लगाने के बाद यह लगातार 5 से 7 साल तक उत्पादन देता है। रोपाई के लगभग तीसरे साल से ही इसमें से गोंद (resin) निकलने लगता है, जिसे सुखाकर हींग बनाई जाती है। पहले दो साल पौधा विकास करता है और मजबूत जड़ें बनाता है। तीसरे से छठे साल तक हींग की मात्रा बढ़ती है। आमतौर पर एक पौधा साल में 200 से 400 ग्राम तक हींग दे सकता है। देखभाल सही हो तो उत्पादन और अवधि दोनों बेहतर रहते हैं।
हींग, जिसे वैज्ञानिक भाषा में असाफोटिडा रेजिन कहा जाता है, Ferula asafoetida नामक पौधे की जड़ों से निकलती है। यह प्रक्रिया पूरी तरह प्राकृतिक होती है, लेकिन इसे सावधानी और सही तकनीक से करना जरूरी होता है।
हींग का पौधा एक बहुवर्षीय फसल होता है और इसकी जड़ें मोटी और मजबूत होती हैं। आमतौर पर तीसरे साल से पौधा रेजिन (हींग) देने के लिए तैयार हो जाता है।
जड़ के ऊपरी हिस्से पर हल्का चीरा लगाया जाता है। यह चीरा बहुत गहराई तक नहीं होना चाहिए, ताकि पौधा मरे नहीं।
चीरा लगाने के कुछ घंटों के भीतर ही पौधे से एक दूध जैसा सफेद रस निकलने लगता है। यह रस हवा के संपर्क में आकर धीरे-धीरे गाढ़ा होता है और रंग बदलकर हल्का भूरा या गहरा लाल हो जाता है।
उस सूखे हुए रस को धीरे से खुरचकर इकट्ठा किया जाता है। यही असली हींग होती है, जिसे बाद में सुखाकर, पीसकर और प्रोसेस करके बाजार में बेचा जाता है।
एक पौधे से हर 10-12 दिन पर नई हींग निकाली जा सकती है। यह प्रक्रिया एक ही पौधे पर कई बार दोहराई जाती है, जब तक कि पौधा प्राकृतिक रूप से रेजिन देना बंद न कर दे। एक पौधे से साल में 200–400 ग्राम हींग निकाली जा सकती है।
CSIR-IHBT, पालमपुर ने हिमाचल और लद्दाख में किसानों को मुफ्त बीज, ट्रेनिंग और तकनीकी मदद दी है। कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) और राज्य कृषि विभाग भी प्रशिक्षण आयोजित कर रहे हैं। PMKSY, RKVY और राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी योजनाओं से अनुदान या सब्सिडी मिल सकती है।
हींग की खेती (Hing ki Kheti) भारत में एक नया लेकिन बेहद मुनाफे वाला अवसर बनकर उभर रही है। अगर आप पहाड़ी, ठंडे या सूखे क्षेत्र में किसान हैं और किसी नई फसल की तलाश में हैं, तो हींग की खेती आपके लिए सोने जैसी साबित हो सकती है। सरकार की मदद, वैज्ञानिकों की रिसर्च और बाजार की बढ़ती मांग, तीनों मिलकर इसे 21वीं सदी की सुपर क्रॉप बना रहे हैं। तो देर किस बात की? अब भारत में हींग भी “मेड इन इंडिया” बनने जा रही है, और आप इसके पहले खिलाड़ी हो सकते हैं।
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हींग यानी असफोटिडा एक बहुत ही सुगंधित मसाला है, जो भारतीय रसोई में खास जगह रखता है। चाहे दाल का तड़का हो या सब्जी की खुशबू, बिना हींग के स्वाद अधूरा लगता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत जो हींग का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, वह अब तक इसे पूरी तरह विदेशों से […]




